मेरी धारणा है कि भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे मँहगे चुनावों में हैं। नेता चुनाव लड़ता है। जीते या हारे, नतीजों के बाद वह खर्चे की भरपाई और अगले चुनाव की तैयारी के लिए धन संग्रहण में जुट जाता है। वह और कोई काम करे, न करे, धन संग्रहण करता रहता है। कह सकते हैं कि धन संग्रहण नेता का मुख्य काम है। इसीलिए भ्रष्टाचार ही आज हमारे नेताओं की मुख्य पहचान बन कर रह गया है। कोई भी नेता अकेला धन संग्रहण नहीं कर पाता। यदि वह सत्ता में है तो सरकारी अधिकारी/कर्मचारी उसका सबसे बड़ा औजार होते हैं। हम अधिकारियों/कर्मचारियों को भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के लिए कोसते हैं। लेकिन तनिक ध्यान से समग्र स्थितियों का विश्लेषण करेंगे तो पाएँगे कि इसके मूल में अन्ततः नेता ही होता है जो चुनावों के लिए धन संग्रह करता है। इसीलिए प्रत्येक नेता, किसी अधिकारी/कर्मचारी के भ्रष्टाचार पर गर्जना के सिवाय कभी, कुछ नहीं कर पाता। भ्रष्ट नेता के पास वह नैतिक आत्म-बल नहीं होता कि वह किसी को भ्रष्टाचार के लिए दण्डित कर सके। ऐसे में हमारे चुनाव पूँजीपतियों, नेताओं और अधिकारियों/कर्मचारियों के ‘बँधुआ मजदूर’ बन कर रह गए प्रतीत होते हैं। आज कोई ईमानदार, भला आदमी चुनाव लड़ने की सोच ही नहीं सकता। उम्मीदवारी तय करते समय पार्टियाँ ‘जीतने की सम्भावना’ को एक मात्र पैमाना बनाती हैं और इस पैमाने पर कोई ईमानदार, भला, मैदानी कार्यकर्ता कभी भी खरा नहीं उतरता। अन्ततः कोई धन-बली, बाहु-बली ही हमारे सामने पेश किया जाता है।
चुनावों को इन जंजीरों से कैसे मुक्त कराया जाए? चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय सरकार को समय-समय पर चुनाव सुधारों के लिए कहते रहते हैं। लेकिन चूँकि ये सारे सुझाव नेताओं की चुनावी सम्भावनाओं पर कुठाराघात करते हैं इसलिए वे (याने कि सरकार) इन पर ध्यान-कान ही नहीं देते। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी ही सरकार से आग्रह किया है संसद को अपराधियों से मुक्त कराने की दिशा में प्रभावी कदम उठाए। लेकिन जिस संसद में तीस प्रतिशत लोग ‘अपराध-दागी’ हों वे भला (संसद में प्रवेश के) अपने रास्ते क्यों बन्द करेंगे?
ऐसे में मुझे ‘नोटा’ अवतार की तरह नजर आता है। मुमकिन है, मेरा सोचना ‘अतिआशावाद’ हो। लेकिन कोई भी व्यवस्था/प्रणाली सम्पूर्ण निर्दोष (जीरो डिफेक्ट) नहीं होती। ऐसे में न्यूनतम दोष (मिनिमम डिफेक्ट) वाली व्यवस्था/प्रणाली अपनाई जानी चाहिए। मुझे लगता है, ‘नोटा’ हमें यह व्यवस्था/प्रणाली देने में मददगार हो सकता है।
अपने मौजूदा स्वरूप में ‘नोटा’, उम्मीदवारों के प्रति हमारी निराशा, उनके प्रति हमारा अस्वीकार तो प्रकट करता है किन्तु किसी एक को जीतने से रोक नहीं सकता। एक लाख मतदाताओं में से 99,900 मतदाता ‘नोटा’ का बटन दबा दें तब भी, शेष 100 में से सर्वाधिक वोट पानेवाला उम्मीदवार जीत जाएगा। मध्य प्रदेश में, 2013 के विधान सभा चुनावों में 26 उम्मीदवारों की और दिसम्बर 2017-जनवरी 2018 में हुए गुजरात विधान सभा चुनावों में 30 उम्मीदवारों की जीत का अन्तर ‘नोटा’ को मिले वोटों से कम था। जाहिर है, आज का ‘नोटा’ हमारी नाराजी तो जताता है किन्तु जिसे हम खारिज करना चाह रहे हैं उसे विधायी सदन में जाने से रोक नहीं पाता।
‘सपाक्स’ ने दो दिन पहले ‘सपाक्स समाज दल’ के नाम खुद को राजनीतिक दल में बदलने की घोषणा की है। इससे पहले तक ‘सपाक्स’ के कार्यकर्ता ‘नोटा का सोटा’ का डर दिखा रहे थे। दोनों प्रमुख पार्टियाँ भयभीत भी थीं। किन्तु वे निश्चिन्त भी थीं कि ‘नोटा’ केवल ‘नोटा’ ही रहेगा, ‘सोटा’ नहीं बन पाएगा। वह किसी न किसी को जीतने से तो रोक नहीं पाएगा। सोटा याने लट्ठ, याने मारक/घातक, याने परिणामदायी। लेकिन आज का ‘नोटा’ मारक या घातक, प्रभावी या कि जन-मनोनुकूल और इससे आगे बढ़कर कहूँ तो जिस मकसद से यह लागू किया था उसके अनुकूल परिणामदायी नहीं है।
इसलिए ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदला जाना चाहिए। ‘नोटा’ को एक उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। तब ही यह इसका मकसद पूरा कर सकेगा। उसके बिना यह एक आत्मवंचना के झुनझुने से अधिक कुछ नहीं है।
‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने के लिए इसे उम्मीदवार की हैसियत दी जानी चाहिए। यदि नोटा जीत जाए तो वहाँ फिर से चुनाव कराया जाए। इस चुनाव में वे लोग उम्मीदवार नहीं हो सकेंगे जो ‘नोटा’ से परास्त हुए थे क्योंकि मतदाता तो उन्हें पहले ही खारिज कर चुके हैं। यह प्रावधान चुनावी विसंगतियों के लिए ‘मारक’ साबित होगा और राजनीतिक दल खुद को दुरुस्त करने के लिए विवश होंगेे।
उपरोक्त प्रावधान हो जाए तो इसके चमत्कारी नतीजे मिलेंगे। मेरे कुछ आशावादी अनुमान इस तरह हैं।
पार्टी कार्यकर्ताओं/समर्थकों को छाताधारी उम्मीदवारों से मुक्ति मिलेगी। देश में आज भी कई लोक सभा, विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र ऐसे मिल जाएँगे जहाँ पहले चुनाव से लेकर आज तक, उस निर्वाचन क्षेत्र से बाहर का आदमी चुनाव जीत रहा है। पार्टी लाइन या पार्टी अनुशासन के नाम पर कार्यकर्ता, बुझे मन से, मन मारकर बाहरी उम्मीदवार को विजयी बनाते हैं। ‘नोटा’ के ‘सोटा’ बन जाने के बाद कार्यकर्ता अपने नेताओं को ‘नोटा’ का भय दिखाकर बाहरी उम्मीदवार को रोक सकेंगे। तब वे कह सकेंगे कि ऐसा करके वे किसी विरोधी को विधायी सदन में नहीं भेज रहे हैं क्योंकि ‘नोटा’ के जीतने पर सब उम्मीदवार खारिज हो जाएँगे। तब पार्टी को स्थानीय उम्मीदवार तलाशना पड़ेगा। तब, बरसों से पार्टी के लिए जाजम बिछानेवाले, दरियाँ झटकनेवाले कार्यकर्ताओं में से किसी को मौका मिल सकेगा। तब लोकतन्त्र की भवनानुरूप ऐसा सच्चा और वास्तविक, स्थानीय नेतृत्व सामने आएगा जिसे अपने क्षेत्र की समस्याओं की न केवल जानकारी होगी बल्कि उन्हें हल करने में भी उसकी दिलचस्पी होगी। ऐसे उम्मीदवार के लिए तमाम कार्यकर्ता अतिरिक्त उत्साह से काम करेंगे जिसका परोक्ष प्रभाव चुनावी खर्च पर भी पड़ेगा ही पड़ेगा।
इसी नजरिये से देखेंगे तो पाएँगे कि राजनीति में परिवारवाद, भ्रष्ट-बेईमान-दागी-दुराचारियों के उम्मीदवार बनने, पार्टियों में विद्रोह, गुटबाजी, भीतरघात की सम्भावनाएँ शून्यवत होंगी। सबसे अच्छी बात होगी कि पार्टियों में आन्तरिक लोकतन्त्र पनपेगा, विकसित होगा। आन्तरिक लोकतन्त्र किसी भी पार्टी की सबसे बड़ी ताकत होती है। पार्टियों का आन्तरिक लोकतन्त्र किसी जमाने में हमारी विशेषता और पहचान हुआ करती थी। काँग्रेस की ‘युवा तुर्क तिकड़ी’ चन्द्रशेखर, कृष्णकान्त और मोहन धारिया पार्टी के अन्दर जिस तरह वैचारिक बहस करती थी उससे नेतृत्व को असुविधा होती थी। काँग्रेस के इतिहास में चन्द्रशेखर ऐसे पहले और एकमात्र व्यक्ति बने हुए हैं जिन्होंने इन्दिराजी की इच्छा के विरुद्ध अ. भा. काँग्रेस कमेटी के सदस्य का चुनाव लड़ा और जीता। इन्दिराजी यह पराजय स्वीकार नहीं कर पाईं और पार्टी का आन्तरिक लोकतन्त्र ही खत्म कर दिया। यहीं से काँग्रेस का पराभव प्रारम्भ हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि सत्ता में आने के बाद प्रत्येक पार्टी काँग्रेस हो जाती है। इसीलिए आज किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतन्त्र नजर नहीं आता। वामपंथी पार्टियाँ अपवाद होने का दावा कर सकती हैं किन्तु अपवाद सदैव ही सामान्यता की ही पुष्टि करते हैं।
‘नोटा’ को यदि उपरोक्तानुसार स्वरूप दे दिया जाए यह ‘लाख दुःखों की एक दवा हो सकता है। तब चुनाव लड़ने के लिए नेताओं को भारी-भरकम चन्दा जुटाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी जिसका अर्थ होगा, भ्रष्टाचार में भरपूर कमी। भ्रष्टाचार तब भी होगा किन्तु तब हमारे नेताओं में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी कार्रवाई करने का आत्म-बल होगा।
फिर कह रहा हूँ, ‘नोटा’ को लेकर मेरा सोच अतिआशावादी हो सकता है, इसमें कमियाँ हो सकती हैं। किन्तु ‘नोटा’ को ‘सोटा’ में बदलने पर हम ‘न्यूनतम दोष’ वाली दशा में आ सकते हैं।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 04 अक्टूबर 2018
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ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteनोटा को बहुमत मिलने पर "राष्ट्रपति शासन" के रूप में भी मान्य करने पर विचार होना चाहिये । वैसे आपका सुझाव भी उत्तम है । 10 साल के लिए राष्ट्रपति शासन हो जाएं तो संभव है कुछ हद तक नेताओं के भष्टाचार पर रोक लगे ।
ReplyDeleteमैं आपकी बातों से सहमत हूँ..नोटा को एक उम्मीदवार के तौर पर होना चाहिए.
ReplyDeleteजो नोटा से हारेगा वो अगले 5 साल तक उस क्षेत्र में चुनाव नहीं लड़ सकता..लम्बे समय के राष्ट्रपति शासन से समस्यांए उत्पन हो सकती है. बेहद आला दर्जे का लेख है.
नाफ़ प्याला याद आता है क्यों? (गजल 5)