मैं सचमुच में बड़भागी हूँ जो मुझे बोहरा सा’ब मिल गए। वे
क्या मिले, मुझे जीवन-पाथेय मिल गया। वे नहीं मिलते तो पता नहीं कि मैं ‘हाथ का साफ’ रह पाता या नहीं। बोहरा सा’ब जैसे लोग आत्मा को निर्मल कर देते हैं।
मैं 1991 में बीमा एजेण्ट बना। उन दिनों विपन्नता के चरम को जी रहा था। एक बार फिर भिक्षावृत्ति के कगार पर आ खड़ा हुआ था। मेरी जीवन संगिनी वीणाजी तो अवलम्ब थीं ही, सहायता करने को उतावले, उदार हृदय मित्र ही मुझे सम्हाल रहे थे मुझे। एजेण्ट बने तीन-चार बरस हो रहे थे। सरकते-सरकते गति पकड़ रहे धन्धे से आत्म विश्वास और हौसला बढ़ता जा रहा था। हम एजेण्ट लोग ग्राहकों से पुराने बीमों की किश्तों की रकम लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं। लेकिन पुराने बीमों की किश्तें जमा कराना ही आज भी ‘मुख्य ग्राहक सेवा’ बना हुआ है। इसी कारण, मेरी जेब में हजार-पाँच सौ रुपये बराबर बने रहने लगे थे। दो छोटे-छोटे बच्चों की जरूरतों की भीड़वाली गृहस्थी। जेब में नोट। लेकिन नोट अपने नहीं। परायी अमानत। खुद को संयत और बच्चों को समझदार बनाने का निरन्तर संघर्ष। जेब में पैसे हैं लेकिन बच्चों की इच्छाएँ पूरी न कर पाने से उपजती झुंझलाहट रुला-रुला देती। मन कमजोर हो, बहक जाने को उतावला होता था लेकिन शायद माँ-पिताजी और दादा के दिए संस्कार थाम लेते थे। कुछ ऐसी ही डूबती-उतराती मनोदशावाले दिनों मे बोहरा सा’ब मिले।
पूरा नाम सज्जाद हुसैन बोहरा। सहायक शाखा प्रबन्धक के पद पर जावरा से स्थानान्तरित हो गृह नगर रतलाम स्थानान्तरित हुए थे। हम एजेण्टों को नए बीमे लाने के लिए प्रेरित करना और हमारी मदद करना उनका काम था। इसलिए बोहरा सा’ब के पास रोज दो-चार बार जाना, बैठना होता ही था। इसी तरह मिलते-मिलाते मालूम ही नहीं हुआ कि कब उनसे मानसिक नैकट्य स्थापित हो गया। हम दोनों अपना काम निपटाते हुए बेकाम की बातें करने लगते। आज, बरसों बाद मालूम हो रहा है कि वे बेकाम की बातें कितने काम आ रही हैं!
इसी तरह बेकाम की बातें करते-करते बोहरा सा’ब ने न जाने कितनी किश्तों में ‘अच्छा बीमा एजेण्ट’ बनने के कुछ गुर दिए। एलआईसी के सारे अफसर हमें ‘सफल एजेण्ट’ बनाने में लगे रहते हैं। लेकिन ‘धर्मनिष्ठ’ बोहरा सा’ब हमें ‘अच्छा एजेण्ट’ देखना चाहते थे। उनका मानना रहा कि एजेण्ट कितना ही बड़ा और कितना ही कामयाब क्यों न हो, वह यदि ‘अच्छा एजेण्ट’ नहीं है तो उसकी कामयाबी और उसका बड़ा होना ‘नीरस, निरर्थक आँकड़ा’ से अधिक कुछ नहीं है। यदि आप ‘अच्छा मनुष्य’ नहीं हैं तो फिर आपकी कामयाबी और बड़ापन, आपकी अचकन में लगा वह कागजी फूल है जो आपको दर्शनीय तो जरूर बनाता है लेकिन उसमें खुशबू नहीं होती। इसलिए वह आपको सार्थकता प्रदान नहीं करता, आपको उपयोगी नहीं बना पाता।
बोहरा सा’ब से बरसों हुई बातों में, खण्ड-खण्ड रूप में मिले ये सूत्र पहली नजर में जरूर बीमा एजेण्ट के धन्धे से जुड़े लगते हैं लेकिन तनिक ध्यान से विचार करें तो वे समूचे जीवन को उदात्तता और प्रांजलता प्रदान करते हैं। अपने पेशे की नैतिकता (प्रोफेशनल ईथिक्स) का ईमानदारी से पालन करना ही इन सारे सूत्रों का आधार और केन्द्र रहा।
पहला सूत्र - ‘आप जिस भी आदमी/औरत का बीमा करें, उसके शारीरिक नाप (ऊँचाई, पेट, सीना/छाती) खुद लें। यदि महिला का बीमा कर रहे हैं तो या तो किसी अन्य महिला की मदद लें और अपने सामने यह प्रक्रिया पूरी करें।’
मेरी एजेंसी का यह अट्ठाईसवाँ बरस चल रहा है। दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह काम करने में हमारे एजेण्ट मित्रों को पता नहीं क्यों शरम आती है। बोहरा सा’ब की इस सलाह पर मैंने यथासम्भव पूरा अमल किया। आज भी मेरी जेब में इंची टेप बना रहता है। नाप लेने के लिए मैं जब जेब से इंची टेप निकालता हूँ तो मौके पर मौजूद तमाम लोग ताज्जुब भी करते हैं और हँसते भी हैं। ऐसा करते समय मुझे हर बार (जी हाँ, हर बार) सुनना पड़ा - ‘पहलेवाले (एजेण्ट) ने तो ऐसा नहीं किया था।’ एक अुगल का इंची टेप हर बार मुझे सारे एजेण्टों से अलग बना देता है। ये नाप खुद लेने से ही हमें ग्राहक की शारीरिक दशा की वास्तविक जानकारी हो पाती है।
दूसरा सूत्र - ‘बैरागीजी! आप बीमा करो तो यह याद रखते हुए करना कि आज बीमा किया और कल उसकी (ग्राहक की) मृत्यु हो जाए तो उसके नामित को दावे की रकम का भुगतान, पहली बार कागज पेश करने पर मिल जाए।’
यह बहुत ही बारीक और महत्वपूर्ण बात है। बीमा होने के तीन वर्ष की अवधि में बीमाधारक की मृत्यु होने की दशा में विस्तृत जाँच होती है। बीमा प्रस्ताव में ग्राहक के स्वास्थ्य-ब्यौरे (जिन्हें, बीमा शब्दावली में ‘मटेरियल फेक्ट’ कहा जाता है) विस्तार से पूछे जाते हैं। यह जगजाहिर तथ्य है बीमा फार्म ग्राहक नहीं भरता है। एजेण्ट ही भरता है। जाँच में ये ब्यौरे यदि झूठे पाए जाएँ तो बीमा कम्पनी मृत्यु दावे की रकम चुकाने से इंकार कर देती है। बोहरा सा’ब इस बात पर हर बार जोर दिया करते थे - ‘एक-एक कर, मटेरियल फेक्ट की पूरी जानकारी लो। कुछ भी गलत मत लिखो।’
तीसरा सूत्र - ‘किश्त की रकम के लिए ग्राहक जो नोट आपको दे, वे ही नोट केश काउण्टर पर जाने चाहिए।’
पहली नजर में यह यह बात हास्यास्पद होने की सीमा तक महत्वहीन लगती है। लेकिन ऐसा है नहीं। कोई नोट कटा-फटा, रंग में सना हुआ, नकली निकल आए तो बदलने के लिए आप ग्राहक से आत्मविश्वास और अधिकारपूर्वक कह सकेंगे। यदि आपने उसके दिए नोट किसी को छुट्टा देने के लिए या अपने काम के लिए बदल लिए तो फिर सारी जिम्मेदारी आपकी होगी और आपको ही आर्थिक भार उठाना होगा।
चौथा सूत्र - ‘ग्राहक ने आपको रकम दी। अगले दिन छुट्टी नहीं है और रकम आपने जमा नहीं कराई तो यकीन मानिए, या तो आपने बहुत बड़ी आफत मोल ले ली है या फिर आपकी नियत में खोट आ गया है। आप इस रकम का उपयोग अन्यत्र करने जा रहे हैं।’
एजेण्ट को रकम देते ही ग्राहक मान लेता है कि उसे बीमा सुरक्षा मिल गई है। यदि उसका बीमा प्रस्ताव अविलम्ब प्रस्तुत/स्वीकृत नहीं हुआ और आपके अभाग्य से कोई अनहोनी हो गई तो उस स्थिति की कल्पना खुद ही कर लीजिए। रकम तो कुछ हजार की होती है जबकि बीमा लाखों का होता है।
सूत्र तो मुझे और भी मिले लेकिन ये चार सूत्र मेरे बीमा व्यवसाय के मजबूत पाये साबित हुए। मैंने इन पर अमल करने की पूरी-पूरी कोशिश की। यह बड़ा कारण रहा कि मैं अपने ग्राहकों का, उनके परिजनों और परिचितों/मित्रों का विश्वास हासिल करने में कामयाब हो पाया। आज जब मैं जीवन के चौथे काल में चल रहा हूँ तो मुझे इस बात का परम आत्म सन्तोष है कि मुझ पर गलत बिक्री (मिस सेलिंग) का, अमानत में खयानत का एक भी छींटा नहीं पड़ा और मटेरियल फेक्ट में विसंगति के आधार पर एक भी मृत्यु दावा अस्वीकार नहीं हुआ। इन सूत्रों ने मुझे भरपूर सार्वजनिक प्रतिष्ठा और पहचान दिलाई।
ये सारी बातें अचानक ही याद नहीं आईं। मेरी आदत है कि जिस भी मुहल्ले में जाता हूँ तो उस मुहल्ले में रहनेवाले अपने अन्नदाताओं (ग्राहकों), परिचितों से मिलने की कोशिश भी करता हूँ। बोहरा सा’ब लक्कड़पीठा मे रहते हैं। बुधवार, 06 दिसम्बर को सुरन्द्र भाई सुरेका से मिलने गया तो बोहरा सा’ब से भी मिलने चला गया। मुझे देखकर वे चकित हुए भी हुए और बहुत खुश भी हुए। मुझे अकस्मात अपने सामने खड़ा देख वे ‘अरे!’ कहकर मानो हक्के-बक्के हो गए। आधा मिनिट तक बोल ही नहीं पाए। उम्र नब्बे बरस के आसपास हो आई है। तबीयत ठीक-ठीक ही है। घर से बाहर निकलना बन्द सा हो गया है। मैं बहुत ज्यादा देर तो उनके पास नहीं बैठा। लेकिन जितनी देर बैठा रहा, लगा किसी विशाल, घने नीम के नीचे बैठा हूँ जो मुझे ठण्डक भी दे रहा है और निरोग भी कर रहा है।
वे बार-बार मुझे धन्यवाद दे रहे थे कि मैं उनसे मिलने पहुँचा। मैं चलने लगा तो बोले - ‘अब तो लोगों ने मिलना-जुलना बन्द ही कर दिया है। आप आए तो जी खुश हो गया। आते रहो।’ मैं उनसे कैसे कहता कि मैं तो खुद ही अपनी खुशी के लिए उनसे मिलने पहुँचा था। मेरी तो तीर्थ यात्रा हो गई। ईश्वर उन्हें स्वस्थ बनाए रखे।
ऐसे बोहरा सा’ब सबको मिलें।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-12-2018) को "उभरेगी नई तस्वीर " (चर्चा अंक-3181) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत-बहुत धन्यवाद। आभारी हूँ।
ReplyDeleteउत्कृष्ट , कई वर्षों के बाद आपकी अभिव्यक्ति पढके अच्छा लगा ।
ReplyDeleteएक ऋण प्राप्त करने के लिए, एक बैंक एटीएम कार्ड प्राप्त करें और कम से कम 7 दिनों में प्राप्त करें!
ReplyDeleteदेखो यह कैसे काम करता है!
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