जीजाजी ने मुझे जोर का धक्का दिया, बहुत धीरे से। प्रेमपूर्वक। आनन्ददायक।
जीजाजी याने विनायकजी पोतनीस। सुभेदार परिवार के दामाद। हमारी नीलम ताई के जीवन संगी। कोई तीस-पैंतीस बरस से उनसे मिलना और बतियाना बना हुआ है। लेकिन वे ‘ऐसे’ भी हैं, यह कभी महसूस ही नहीं होने दिया। बहुत कम बोलते हैं और धीमी आवाज में। उन्हें सुनने के लिए अतिरिक्त चौकन्ना होना पड़ता है।
यह बीस दिसम्बर की रात थी। सुभेदार परिवार का उपक्रम ‘आशर्वाद नर्सिंग होम’, अगली सुबह, 21 दिसम्बर 2018 को रतलाम के चिकित्सा व्यवसाय जगत में इतिहास का महत्वपूर्ण पन्ना जोड़ने जा रहा था। (इस पर मैं अलग से लिखूँगा।) इसी प्रसंग पर समूचा सुभेदार कुटुम्ब जुटा हुआ था। कार्यक्रम संचालन का सुख-सौभाग्य मुझे मिला था। इसी सिलसिले मैं वहाँ पहुँचा था।
काम की बातें हो चुकी थीं। हम लोग बेबात बतिया रहे थे। जीजाजी चुपचाप उठे। अन्दर गए। एक छोटी सी पुस्तिका लिए लौटे। मैं बेध्यान हो, गप्पों में व्यस्त था। जीजाजी सीधे मेरे सामने आए और पुस्तिका मुझे थमाते हुए बोले - ‘इसे देखिएगा विष्णुजी! शायद आपको अच्छी लगे।’ मैंने देखा, कविता संकलन था। कवि का नाम था - विनायक पोतनीस। मेरे लिए यह उल्कापात से कम नहीं था। मैंने जड़ अवस्था में ही पन्ने पलटे। तीस पृष्ठों की, बहुरंगी मुखपृष्ठवाली इस पुस्तिका में छब्बीस कविताएँ थीं। मैं अवाक् हो गया।
जीजाजी अच्छे-भले सिविल इंजीनीयर हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य यान्त्रिकी (पी एच ई) विभाग की नौकरी में जिन्दगी खपा दी। बेदाग और निर्विवाद रहते हुए विभाग के सर्वोच्च पद, प्रमुख यन्त्री (इंजीनीयर-इन-चीफ) से सेवानिवृत्त हुए। जब भी मिले, प्रायः चुप ही मिले। लोग अपनी अफसरी के किस्से शेखियाँ बघार-बघार कर सुनाते हैं। लेकिन जीजाजी तो कभी खुद के बारे में भी बताते नहीं मिले! ऐसे ‘चुप्पा’ जीजाजी कवि भी हैं! मुझे अचानक ही निदा फाजली याद आ गए -
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।
मैंने तो जीजाजी को कई बार देखा लेकिन वे ‘ऐसे’ तो कभी नजर नहीं आए! मेरी नजर का ही दोष है यह। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। घरघराई आवाज में पूछा - ‘आप कविताएँ भी लिखते हैं?’ जवाब लगभग निस्पृह स्वरों में मिला - ‘हाँ। यह चौथी किताब है।’ मैं रोमांचित हो, असहज हो गया था। मुझे सम्पट नहीं बँध रही थी। थरथराते हाथों से मेंने किताब के पन्ने पलटे। दो-एक कविताएँ पढ़ीं। मुझे कविता की समझ नहीं है। लेकिन कविताएँ मुझे अच्छी लगीं। उनके सामने पढ़ी कविताओं पर दो-चार बातें कीं और लौट आया।
घर आकर कविताएँ पढ़ीं। कई बातें मन में आने लगीं।
जीजाजी ने छत्तीस बरस की नौकरी में दस बरस छत्तीसगढ़ में गुजारे। 1996 में सेवा निवृत्ति के बाद भी छत्तीसगढ़ से रिश्ता बना रहा। अभी जीवन के बयासीवें बरस में चल रहे हैं। भोपाल में बस गए हैं। लेकिन बस्तर आज भी उनके मन में बसा हुआ, साथ बना हुआ है। अब भी ‘हाण्ट’ करता है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मुझे दी पुस्तिका के शीर्षक में बस्तर प्रमुख है। यह पुस्तिका दो बरस पहले ही छपी है। सारी कविताएँ तो बस्तर पर नहीं हैं लेकिन बस्तर प्रमुखता लिए हुए है।
मैं कहूँ, उससे बेहतर है कि दो-एक कविताएँ खुद ही कहें-
हरा सलाम
कोई चालीस साल गुजरे
बस्तर से मेरा तबादला हुए
मेरे रहगुजर थे वो
हरी आस्तीनें हिलाकर सलाम जताते
हरी छत्री धरे साल की
मधुमक्खी के छत्ते जैसे जंगल में बसे
जगरमुण्डा से देर रात में बेखौफ लौटता
बस्तर अभय वरदान था।
हरा सलाम अचानक लाल हो गया
सुरंगों, दुनालियों से निकले लाल फव्वारे
हरा केवल पेड़ पत्तों में बहता रहे
लाल केवल शरीर की शिराओं में
बाहर नहीं।
+ + + + +
स्वप्नदेश
सारी सृष्टि नवजात बालक सी
निर्बोध, निर्विकार, उल्लासमय
युवा तितलियों का स्वानन्द विचरण
मन्द, मादक महुए का वातावरण
तब बस्तर स्वप्नदेश था।
+ + + + +
जगरगुंडा में एक शाम
कंधे तक ऊँची घास के रास्ते
कटेकल्यान पठार से सीधे उतरे
एक शाम जगरगुंडा में
बितायी एक रात
अठपहरिया की थानागुड़ी में
बस गई यह रात मेरे अवचेतन में।
+ + + + +
मरमेड (मत्स्यपरी)
सोचा भी नहीं कभी मरमेड दिखेगी
अचानक बिजली सी कौंध गई
मछलीनुमा नुकीले पाँव, हीरे टपकाते केश
सुनामी जैसी आयी और
बरबाद कर गई।
पुस्तिका मिले साठ घण्टे से अधिक हो गए हैं लेकिन कविताएँ मेरे साथ ही बनी हुई हैं। जब मेरी यह दशा है तो जीजाजी ने इन कविताओं को तो जीया है! खुद को व्यक्त करने तक जीजाजी की क्या दशा रही होगी? सम्भवतः इसीलिए ‘कवि’ आजीवन आकुल, व्याकुल, व्यग्र बना रहता है। उसकी यह दशा ही समय और समाज को संजीवनी दे पाती है।
इस कविता पुस्तक ने एक और जीजाजी से ही मुलाकात नहीं करवाई, यह भी बताया कि हमारी नीलम ताई का पूरा और वास्तविक नाम नीलप्रभा है और वे सुन्दर रेखांकन भी करती हैं। पुस्तिका के मुखपृष्ठ का रेखांकन उन्हीं का है।
शासक और रचनाकार में यही अन्तर है। दोनों अपनी-अपनी दुनिया बसाते हैं। लेकिन शासक की दुनिया में किसी और के लिए जगह नहीं होती जबकि रचनाकार की दुनिया में सदैव भरपूर स्पेस उपलब्ध रहती है। इतनी कि पूरा ब्रह्माण्ड समा जाए तो भी जगह बची रहती है। जीजाजी की दुनिया में भी भरपूर जगह है।
इस सम्भावना के साथ कि आपको कविताएँ अच्छी लगी हों और उनसे बात करना चाहें, उनका अता-पता, सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ -
श्री विनायक पोतनीस
ए-124, मानसरोवर कॉलोनी,
शाहपुरा,
भोपाल-462039
मोबाइल नम्बर - 94244 07829
ई-मेल:vinayakpotnis124@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-12-2018) को हनुमान जी की जाति (चर्चा अंक-3195) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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ReplyDeleteदेखो यह कैसे काम करता है!
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वाह सीधा सच्चा लेखन
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