‘दोनों में डिफरेंस ही क्या है? दोनों एक ही तो हैं अंकल!’ सुनकर मैं चौंका भी और हतप्रभ भी हुआ।
यह 25 जनवरी की अपराह्न है। सत्तरवें गणतन्त्र दिवस से ठीक एक दिन पहले की अपराह्न। मेरे परम मित्र रवि शर्मा के भानजे लकी के विवाह प्रसंग के कार्यक्रमों में भागीदारी के लिए बिबड़ोद मार्ग स्थित एक मांगलिक परिसर में बैठा हूँ। सब लोग फुरसत में गपिया रहे हैं। लोकसभा चुनावों पर बातें हो रही हैं। ‘सरकार किसकी बनेगी?’ इस पर हर कोई बढ़-चढ़कर, विशेषज्ञ की मुद्रा में अन्तिम राय दे रहा है। सबकी अपनी-अपनी पसन्द है। वे अपनी पसन्द की सरकार बनवा रहे हैं। मैंने अचानक ही कह दिया - “सरकारें तो बनती-बिगड़ती रहती हैं। आती जाती हैं। बेहतर होगा कि ‘राज’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें।’ मेरी इसी बात के जवाब में एक अपरिचित नौजवान ने वह कहा जो मैंने शुरु में लिखा है। वह नौजवान स्नातक कक्षा के अन्तिम वर्ष का विद्यार्थी है। वह ‘राज्य’ और ‘राज’ को पर्यायवाची माने बैठा है। यह हमारी, भाषागत विफलता है या अपनी अगली पीढ़ी से बनी हमारी संवादहीनता का परिणाम? मेरा भाग्य अच्छा था कि उस नौजवान ने समझने की खिड़कियाँ बन्द नहीं कर रखी थीं। उसने इस अन्तर को समझाने का आग्रह किया। मेरी बात तनिक लम्बी हो गई लेकिन उस नौजवान ने पल भर भी धैर्य नहीं छोड़ा। वह मेरी बात चुपचाप सुनता रहा।
हम स्वभावतः लोकतान्त्रिक समाज रहे हैं। शासक भले ही एक व्यक्ति (राजा) रहा हो लेकिन वह भी ‘लोक’ केन्द्रित ही रहा। भारत का इतिहास जनपदों और गणराज्यों के उल्लेखों से भरा पड़ा है। शासक कोई भी रहा हो, ‘गण’ और ‘जन’ ही उसके लक्ष्य रहे हैं। राजाओं ने राज तो किया लेकिन ‘राज्य’ ही उनकी पहली चिन्ता और पहली प्राथमिकता रहा। राम के वनवास काल में भरत ने राज तो किया लेकिन राजा बनकर नहीं। उन्होंने ‘अवध’ की चिन्ता की, खुद के पद की नहीं। मेवाड़ के शासकों ने भगवान एकलिंगजी के प्रतिनिधियों के रूप में राज किया। जिन्होंने ‘राज’ की परवाह की, वे लोकोपवाद के रूप में उल्लेखित किए गए और जिन्होंने ‘राज्य’ की परवाह की वे इतिहास बन गए।
कानूनी और तकनीकी विवेचन से तनिक नीचे उतरकर बोलचाल की भाषा में बात करें तो ‘राज्य’ एक स्वतन्त्र, सार्वभौम भूमि प्रदेश होता है और ‘राज’ उसकी संचालन व्यवस्था। भारत एक स्वतन्त्र, सार्वभौम गणराज्य है और निर्वाचित संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली इसकी संचालन व्यवस्था। इस प्रणाली से ही हम अपनी सरकार चुनते हैं। ऐसी प्रत्येक सरकार (याने कि ‘राज’) अस्थायी होती है लेकिन ‘राज्य’ तो स्थायी, अविचल बना रहता है।
लेकिन ‘सेवक भाव’ से राज करने की बात अब ‘कल्पनातीत’ से कोसोें आगे बढ़कर ‘मूर्खतापूर्ण सोच’ हो गई है। अब तो जो भी सरकार में आता है, वह आजीवन वहीं बना रह जाना चाहता है। इसीलिए प्रत्येक ‘राजा’ खुद को ‘राज्य’ साबित करने लगता है। तब, ‘व्यक्ति विरोधी’ को ‘राष्ट्र विरोधी’ घोषित किया जाने लगता है। इसका पहला उदाहरण इन्दिरा राज में तत्कालीन कांग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा’ कह कर पेश किया था। तब, विरोधियों की बात तो दूर रही, अनेक काँग्रेसियों ने भी इस ‘अमृत वचन’ से असहमति व्यक्त कर इसकी खिल्ली उड़ाई थी। 1977 के आम चुनावों में देश ने बरुआ का मुगालता दूर कर दिया। खुद इन्दिरा गाँधी ही चुनाव हार गई।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ‘राज’ और ‘राज्य’ का अन्तर जिस तरह से हमें समझाया वह अद्भुत है। उन्होंने ‘राज्य’ (भारत) को मुक्ति दिलाने के लिए ‘राज’ (अंग्रेजी राज) को उखाड़ फेंका। गाँधी के प्रत्येक आग्रह, अभियान को अंग्रेज सरकार ने राष्ट्रद्रोह कहा लेकिन गाँधी ने हर बार साबित किया कि वे देश का नहीं, अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे थे। आश्चर्य यह कि यह अनूठा विरोध भी वे अंग्रेज सरकार के (याने ‘राज’ के) कानूनों का पालन करते हुए कर रहे थे। क्रान्तिकारियों का साथ न देने के कुछ आरोप् गाँधी पर इसलिए भी लगे कि गाँधी ने, अपने सिद्धान्तों के अधीन, ‘राज’ के कानूनों का उल्लंघन करने से इंकार कर दिया था।
‘राज’ और ‘राज्य’ कभी भी समानार्थी या कि पर्यायवाची नहीं रहे। केवल तानाशाही शासन पद्धति में ही ये दोनों समानार्थी माने जाते हैं। तब, राजा को ही राष्ट्र बना दिया जाता है। राजा के विरोधी को राष्ट्र का विरोधी करार दिया जाता है और मृत्युदण्ड या देश निकाला दे दिया जाता है। इन्दिरा राज में इन्दिरा विरोधियों को देश विरोधी करार दिया जाता था। वही दौर आज फिर लौट आया है। प्रधान मन्त्री मोदी को ‘राष्ट्र’ निरूपित किया जा रहा है। उनके विरोधियों को राष्ट्र विरोधी करार दिया जा रहा है और ऐसे ‘राष्ट्र विरोधियों’ को पाकिस्तान भेजने का तो मानो मन्त्रालय ही स्थापित हो गया है। इतिहास गवाह है कि तानाशाहों का अन्त या तो आत्म-हत्या से हुआ है या फाँसी से।
हमारे संविधान में राजनीतिक प्रतिबद्धता की बाध्यता नहीं थी। संविधान विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रधान मन्त्री चुनने के बाद संसद सदस्य राजनीति प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाते थे। किन्तु बाद के वर्षों में (सम्भवतः राजीव गाँधी के कार्यकाल में, जब दलबदल निरोधी प्रावधान प्रभाव में आए) पार्टी व्हीप की बाध्यता शुरु हुई।
आज ‘राज्य’ पर ‘पार्टी लाइन’ हावी हो गई है। प्रत्येक पार्टी के लोग जानते हैं कि उनकी पार्टी की अनेक बातें असंवैधानिक, अनुचित और आपत्तिजनक हैं। लेकिन वे सब केवल ‘पार्टी लाइन’ के अधीन ‘क्रीत दास भाव’ से उनका समर्थन करते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान कही गई अपनी अनगिनत बातों पर हमारे मौजूदा प्रधान मन्त्री मोदी ने जिस तरह से पलटियाँ खाई हैं और उनके तमाम समर्थक जिस तरह से मौन हैं, वह हमारे सामने है।
प्रत्येक गणतन्त्र दिवस हमारे आत्म निरीक्षण का अवसर बन कर सामने आता है। हम स्वतन्त्र, सार्वभौम, लोकतान्त्रिक गणराज्य हैं। यही हमारी पहली चिन्ता और पहली जिम्मेदारी है। सरकारें क्षण भंगुर हैं। देश चिरंजीवी, चिरन्तन है। हमारी सरकारें कर्तव्यच्युत न हों, यह हमारी जिम्मेदारी है। अपनी पार्टी के ‘राज’ का अन्ध समर्थन करते रहे तो ‘राज्य’ खो बैठेंगे। ‘राज्य’ हमारा माथा है और ‘राज’ उसे ढँकनेवाली टोपियाँ। सर है सलामत तो टोपी हजार। ‘गण’ (याने कि ‘हम, भारत के लोग’) अपने ‘राजा’ पर, वस्तुपरक भाव से (आब्जेक्टिवली) नजर रखें और पथभ्रष्ट होने पर उसे रोकें-टोकें। यह गुंजाइश रखंे कि ‘हमारा राजा’ मनुष्य है, गलती कर सकता है। यदि ‘राजा’ हमारी पार्टी का है तो हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। विरोधी कुछ कहे, उससे पहले हम ही उसे टोकें।
कुर्सी पर बैठते ही प्रत्येक ‘राजा’ मुगालते में आ जाता है कि अब उसे कोई हटा नहीं सकता। उसे याद दिलाते रहें कि इस कुर्सी पर कल कोई और था, कल कोई और होगा। पदान्ध-मदान्ध हो रहे अपने राजा को राहत इन्दौरी का यह शेर जोर-जोर से, बार-बार सुनाएँ, सुनाते रहें -
आज जो सहिब-ए-मसनद हैं, कल नहीं होंगे
किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े है?
गणतन्त्र दिवस की इस मंगल वेला में हम अपनी गरेबाँ में झाँकें। ‘राज’ या ‘राजा’ की नहीं, ‘राज्य’ की चिन्ता करें। ‘राज्य’ बना रहेगा तो ‘अपना राजा’ और ‘अपना राज’ बनता रहेगा। ‘राज्य’ ही नहीं रहेगा तो कौन सा राजा और किसका राज?
गणतन्त्र दिवस की शुभ-कामनाएँ। अमर रहे गणतन्त्र हमारा।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (27-01-2019) को "गणतन्त्र दिवस एक पर्व" (चर्चा अंक-3229) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गणतन्त्र दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'