मेरी जन्म कुण्डली में एक गीतायोगी सन्त: गोविन्दलाल समदानी

दादा से जुड़ी जानकारियों को लेकर मैं खुद को छोटा-मोटा ‘प्राधिकार’ ही मानता रहा हूँ। लेकिन यहाँ प्रस्तुत दादा के लेख ने मेरा यह दम्भ ढहा दिया। इस लेख के नायक-पुरुष गोविन्द दादा समदानी के छोटे भाई श्री बृजमोहन समदानी ने, 16 मई 2019 को यह लेख मुझे उपलब्ध कराया था। नीमच से प्रकाशित हो रहे, दैनिक नई विधा के दिनांक 20 जून 2005 के अंक में प्रकाशित इस लेख से मुझे पहली बार दादा के निर्माण में श्री गोविन्द दादा समदानी के अवर्णनीय अवदान की जानकारी मिली। मैं कबूल करता हूँ कि इस लेख के पढ़ने से पहले मुझे ये जानकारियाँ बिलकुल ही नहीं थी। इस लेख ने मेरे सोचने की दिशा ही बदल दी। 

यह लेख मैं जल्दी से जल्दी अपने ब्लॉग पर देना चाहता था। उत्कट इच्छा थी कि गोविन्द दादा के अमृत महोत्सव के चित्र इसमें शामिल करूँ। दादा श्री बालकवि बैरागी भी इस समारोह में शामिल थे। भाई बृजमोहन ने चित्रों के लिए सम्बन्धित छायाकार मित्र से सतत् आग्रह किया। छायाकार मित्र आश्वस्त करता रहा किन्तु उसे भी शायद अपने संग्रह में ये चित्र नहीं मिल पाए। आज 13 मई 2021 को दादा की चौथी पुण्य तिथि और तीसरी बरसी है। इस प्रसंग पर इसे बढ़िया सामग्री और क्या हो सकती थी?

भाई बृज मोहन के पास, अमृत महोत्सव के समय गोविन्द दादा का लिया एक चित्र तत्काल उपलब्ध था। वही चित्र यहाँ दे पा रहा हूँ। 

यह लेख दादा का आत्म-कथ्य है।  




मेरी जन्म कुण्डली में एक गीतायोगी सन्त: गोविन्दलाल समदानी

-बालकवि बैरागी

विधि का विधान विचित्र है। ईश्वर की कृपा अनन्त है। आकाश में करोड़ों नक्षत्र हैं, लाखों सितारे हैं। तारामण्डल अरबों जगमग तारिकाओं से भरपूर है। निस्सन्देह इनमें एक न एक तारा, एक न एक नक्षत्र आपका भी है। उसकी समूची आभा और प्रभा के साथ ईश्वर ने उसे आपके लिए ही सौर मण्डल में स्थापित किया है, उसे उसकी कक्षा दी है, अपनी कक्षा में उसे प्रेक्षामान रखा है। यह अलग बात है कि आपने उसे पहचाना या चिह्ना नहीं। यह आपका अपना नक्षत्र है और चुपचाप अपना आलोक आपको दे रहा है।

मुझे भी परमपिता परमात्मा ने ऐसा ही चुप्पा और छिपा नक्षत्र मेरी जन्मकुण्डली में चुपचाप दे दिया है। आज मेरे सामने यह अवसर है जबकि मैं उसे प्रकट कर दूँ। आपको उससे परिचित करवा दूँ। मेरे अपने परिजनों को उसके बारे में लिखकर सनद कर दूँ। नाम है उसका श्री गोविन्दलाल समदानी। मुम्बई में उसके अपने लोग उसे ‘जीएस मनासावाला’ के नाम से जानते हैं। ‘जी. एस.’ से मतलब है - गोविन्दलाल समदानी।

16 जून 2005 को गोविन्द अपने जीवन के 76 वर्ष पूरे कर गया। समदानी परिवार के परिजन, स्वजन, स्नेहीजन और बन्धु-बान्धव उसका अमृत महोत्सव मना रहे हैं। उमंग के इस प्रसंग पर भी भाग्य देवता ने एक काली लकीर उदासी की खींच दी है। अभी कुछ ही समय पहले गोविन्द की सहधर्मिणी, जीवन सहचरी शान्ता भाभी एकाएक देवलोक चली गईं। प्रभु को शायद यही स्वीकार था। ईश्वर से हम कैसे लड़ें? हम केवल प्रार्थनाएँ कर सकते हैं। हम यही करते आ रहे हैं।

इस आलेख का मूल चरित्र है - बालकवि बैरागी के जीवन में गोविन्द का स्थान। यदि आप मनासा की गलियों और वीथियों से परिचित हों  तो आज एक बार फिर से अपनी स्मृतियों को ताजा कर लें। घूम लें। गोविन्द का घर घासपुरा मोहल्ले में। मैं पुरबिया मोहल्ले का निवासी। गोविन्द, ‘नगजीराम श्रीनिवास’ जैसी फर्म के मालिक, नगर सेठ श्री घनश्यामजी समदानी का जेठा सुपुत्र। और मैं? मैं, श्री द्वारिकादासजी बैरागी जैसे विपन्न, जन्मना अपाहिज पिता का, भिक्षान्न पर पलते परिवार का ज्यष्ठ पुत्र। गोविन्द के और मेरे बीच आयु-अन्तराल एक या आधे वर्ष का। वो बड़ा। मैं छोटा। हम दोनों के खेलने-कूदने का एक ही स्थान - गोविन्द की अपनी रंगबाड़ी याने समदानी सेठों की चरखीवाली बगीची। गोविन्द के पास सब-कुछ। सम्पन्नता, समृद्धि और सुव्यवस्थित व्यापार। मेरे हाथ में भीख का कटोरा।

ऐसे में सन् 1941 से 1947 तक गोविन्द ने मुझे सँभाला, सहारा दिया। मुझे नहीं पता, गोविन्द ने प्रायमरी कक्षा तक पढ़ाई कहाँ की। पर ज्यों ही मैं ‘पामेचा परिसर’ में लगनेवाले प्रायमरी स्कूल में चौथी पास करके पाँचवीं पढ़ने बड़े स्कूल पहुँचा कि गोविन्द मुझे नए रूप में मिल गया। किताबें, कॉपियाँ, कलमें और गोली-पीपलमेण्ट तक का सहयोग। मेरे घनघोर संघर्ष काल में, सहोदरवत् एक साझीदार। मुझे खूब याद है, सातवीं तक के उस होलकर रियासती स्कूल में अकेला गोविन्द वह विद्यार्थी हुआ करता था जो स्नान-ध्यान के पश्चात् बालों में तेल-कंघी करके, खुले सिर कक्षा में बैठता था।(होलकर रियासत में यह अघोषित, सर्वस्वीकार राजाज्ञा थी कि कोई भी बिना माथा ढँके, सार्वजनकि स्थान पर न दिखाई दे। यह दण्डनीय अपराध माना जा सकता था।) स्कूल के बाकी सारे विद्यार्थी माथे पर टोपी लगाए आते थे। पढ़ाई के वक्त पढ़ाई, बागवानी के पीरीयड में बागवानी और खेलकूद और ड्रील के समय खेलकुद और ड्रील-डम्बल्स।

सातवीं पास करके हम लोग जब मेट्रिक की पढ़ाई करने रामपुरा गए तो मेरे लिए गोविन्द नए अवतार का अवतारी था। मैं 32 किलोमीटर (तब के बीस 20 मील) का 13 वर्षीय पदयात्री। गोविन्द के पास सारे साधन। वह चुपचाप मेरे मेरे संघर्षों को भाँपता रहा। मैं रामपुरा में, भीख में रोटियाँ माँग कर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था। गोविन्द ने सुदामा से सगी प्रीत निभाई। किस्मत ने मुझे नन्दलाल भण्डारी बोर्डिंग हाउस का छात्र बना दिया। अब फिर मेरा पलंग गोविन्द ने अपने कमरे में लगवाया। मेरी पुस्तकों की चिन्ता, मेरी कॉपियों की फिक्र, मेरी कलमों की व्यवस्था, मेरी फीस की जुगाड़, इतना ही नहीं, रात को सोते समय अपने दूध के गिलास में से मेरे लिए दूध का सरंजाम। कपड़े मेरे पास दो या तीन जोड़ी भी मुश्किल से होते थे। मैं उन्हें धोता तो गोविन्द अपने कपड़ों के साथ उन्हें भी रस्सी पर फैला कर सुखा देता। मैं गणेशोत्सव के मंचों पर जीतता तो गोविन्द, बड़े भाई की तरह खुश होता। मैं सफलता पर इतराता तो गोविन्द समझाता, ‘सफलता पर इतरा मत।’ मैं किलकारियाँ मार कर कुलाँचें भरता तो गोविन्द मन नही मन दुआएँ करता।

गोविन्द की दिनचर्या तब भी बहुत व्यवस्थित और कसी हुई थी। सवेरे प्रार्थना की घण्टी के साथ उठना। प्रार्थना करना। स्नान से पहले मालिश और बैठक, दण्ड बैठक, डबल बार, मल्ल खम्भ जैसी कसरतें। फिर नहा कर स्वाध्याय। समय पर स्कूल जाना। शाम को फिर खेलकूद, होमवर्क, भोजन और शयन से पहले प्रार्थना। फिर विश्राम।

सन् 1947 में हम लोगों ने मेट्रिक पास किया। मनासा के 5 लड़के रामपुरा हाई स्कूल से दूसरी श्रेणी में पास हुए। इन पाँच में मैं भी था। गोविन्द तो था ही। नगर सेठ परिवार ने हम पाँचों का जुलूस मनासा नगर में बेण्ड-बाजों के साथ निकलवाया। गोविन्द के कारण शेष चार भी तर गए। मेरे संघर्ष इस सफलता के साथ और अधिक घने हो गए। अपनी अगली पढ़ाई के लिए गोविन्द मनासा से बाहर चला गया। मैं अपने भविष्य के लिए जूझता रहा। 

शनैः शनैः गोविन्द का अध्यात्म जागता रहा। वह सालीसीटर बना। ‘जीएस मनासावाला’ का नाम आज मुम्बई के सालीसीटर जमात में प्रतिष्ठा और सम्मान का सूचक है। समय का सत्य एक और भी है। समय देवता ने गोविन्द को श्री पाण्डुरंग आठवले शास्त्री महाराज से जोड़ दिया। काले कोट और कानून की पोथियों से लदा-फँदा गोविन्द एक ‘गीतायोगी’ के तौर पर उभरा। लाखों लोगों की भीड़ में गोविन्द, गीता के भाष्य करता दिखाई पड़ा। गोविन्द का यह नया रूप सारे देश में सात्विकता और तात्विकता की कसौटियों पर परखा गया। 

पूरे देश का भ्रमण करके भी गोविन्द से मनासा नहीं छूटा। अपने विशाल समदानी परिवार के सदस्यों को गोविन्द ने सम्मानजनक स्थानों और व्यवसायों में स्थापित किया। समदानी परिवार का ‘सेतु-पुरुष’ बने रहकर अपनी अध्यात्मिकता, सात्विकता को  गोविन्द ने सारे देश में लुटाया। ईश्वर में उसकी असीम आस्था है। एक माहेश्वरी परिवार का सुरुचि सम्पन्न सद्गृहस्थ गोविन्द, मन, वचन, वाणी और कर्म से आज श्रीमद्भागवत गीता को अपने जीवन में उतारते हुए हमें प्रेरित कर रहा है।

मनासा के पुण्योदय का यह क्षण मुझे हर्षित और रोमांचित करता है। हम लोग गोविन्द का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहे हैं। मुझे कई परिजन आज याद आते हैं। काका साहब श्री कन्हैयालालजी, पिता श्री घनश्यामजी और समूचा वह मातृ-मण्डल जो हमें दुलारता, पुचकारता, आशीर्वाद देता था, आज होता तो ईश्वर की विशेष कृपा होती। पर महाकाल का महाभोग अनिवार्य है। 

गोविन्द से मुझे आज इतना ही कहना है - “देख गोविन्द! मेरी किस्मत कि भगवान ने मेरी जन्म कुण्डली में तुझ जैसा गोविन्द दिया और एक तेरी किस्मत है कि तेरी जन्म कुण्डली में मुझ जैसा ‘बैरागी’ बैठा दिया।”

रह-रह कर मैं सोचा करता हूँ कि गोविन्द जैसे एक सन्त, गीतायोगी का साथ मुझे प्रभु ने तब नहीं दिया होता तो मेरी जीवन नैया कितने हिचकोले खाती? 

ईश्वर तुझे लम्बी उम्र दे गोविन्द!

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‘समदानी’ कुलनाम मेरी चेतना में आज भी बैठा हुआ है। मैंने इस कुलनाम का ससम्मान सदुपयोग किया और अपनी प्रसिद्ध कविता ‘चलो देश के लौह लाड़लों, माँ ने तुम्हें बुलाया है’ में प्रयुक्त कर जनता की तालियाँ बटोरीं, सराहना प्राप्त की। समय था सन् 1962 का। भारत माता पर चीन का विश्वासघाती हमला। मैंने देश के नौजवानों को ललकारा। साथ ही देश के दानवीरों को जगाया। मैंने लिखा -


देखो हिमगिरि की की ड्योढ़ी पर, हत्यारा चढ़ आया है।
चलो देश के लौह लाड़लों, माँ ने तुम्हें बुलाया है।।

ओ बजाज, ओ बिड़ला, टाटा, डालमिया औ’ सोमानी।
ओ निजाम, ओ साराभाई, बैद्यनाथ, ओ समदानी।।
कच्छ देश के कर्ण-कुबेरों, बागड़िया, राजस्थानी।
(ओ) भामाशाह की सन्तानों, तुम पुनः बनो औढरदानी।।

आज वतन पर सब निछरादो, जितना भी जुट पाया है।
चलो देश के लौह लाड़लों माँ ने तुम्हें बुलाया है।।


इन पंक्तियों में ‘समदानी’ शब्द का उपयोग मैंने गोविन्द के कारण ही किया है। कई श्रोताओं ने अपरिचित समदानी परिवार के बारे में मुझसे पूछा। मैं गर्व से कहता आया हूँ कि यह परिवार मेरे गाँव मनासा का प्रसिद्ध परिवार है। 


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