मूर्ख मित्र और आत्म-मुग्धता का अतिरेक

आज सबसे पहले मुझे अपनी प्रशंसा कर लेने दीजिए।

मन्दसौर से प्रकाशित हो रहा ‘दैनिक ध्वज’ अविभाजित मन्दसौर जिले का सबसे पुराना दैनिक अखबार है। इतना पुराना कि जब मुझे कुछ सूझ पड़नी शुरु हुई तो मैंने अपने आसपास के लोगों को  दैनिक ध्वज ही पढ़ते देखा। इतना पुराना कि इसी में समाचार लिख-लिख कर मैंने समाचार लिखना सीखा। शुरुआत में यह ‘जैन ध्वज’ था जो कालान्तर में दैनिक ध्वज बन गया।

1970 के आसपास श्री सौभाग्यमलजी जैन ने मन्दसौर से साप्ताहिक दशपुर दर्शन निकालना शुरु किया जो अस्सी के दशक में दैनिक दशपुर दर्शन बन गया। मैं इसका संस्थापक सम्पादक हूँ। उस समय दैनिक कीर्तिमान भी मन्दसौर से निकलता था किन्तु प्रतियोगिता दैनिक ध्वज से ही होती थी। 

हमारा अखबार भले ही बहुत छोटा था किन्तु हम लोग प्रतिदिन, दिन की शुरुआत समीक्षा बैठक से ही करते थे। आपस में तो हम सब दैनिक ध्वज की बात करते थे लेकिन मैंने सब ‘अपनेवालों’ को कह रखा था कि इस समीक्षा बैठक के बाद/बाहर हममें से कोई भी दैनिक ध्वज का न तो नाम लेगा और न ही इसका नोटिस लेगा। इसलिए जब भी कोई पाठक, चिन्ता करते हुए, आत्मीयता से कहता - ‘फलाँ समाचार ध्वज में तो है। अपने अखबार में क्यों नहीं?’ तब मैं अबोध-अनजान बन, मासूम शकल बनाए पूछता - ‘यह ध्वज क्या है?’ सामनेवाला इस तरह उछलता जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। वह बौखलाकर प्रति-प्रश्न करता - ‘तुम नहीं जानते ध्वज को?’ मैं अपनी वही कुटिल मासूमियत बरकरार रखते हुए कहता - ‘नहीं जानता। तुम्हीं बताओ, ध्वज क्या है?’ लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे पाठकोें ने ध्वज का नाम लेना इस तरह बन्द कर दिया मानो इस नाम का कोई अखबार है ही नहीं। हालाँकि मेरी इस कुटिलता से ध्वज को राई-रत्ती भर फरक नहीं पड़ा। पड़ता भी कैसे? एक तरफ, गहरी जड़ोंवाला विशाल वट-वृक्ष, दूसरी ओर नई-नई उग आई घास। क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा? लेकिन इसके पीछे, शुरु से बनी हुई मेरी धारणा रही कि उपेक्षा, अनदेखी से बड़ा और कड़ा दण्ड और कोई नहीं होता। भला यह क्या बात हुई कि अपना अमूल्य समय, श्रम, ऊर्जा और संसाधन हम, ‘गैर’ की चर्चा में खपाएँ? यह सच है कि उपेक्षा, अनदेखी करने से ‘गैर’ का वजूद खत्म नहीं होता, किन्तु ‘गैर’ का जिक्र न होने से अपना जिक्र होने की गुंजाइश बहुत बढ़ जाती है।  

यह बात मुझे याद नहीं आती। किन्तु प्रधान मन्त्री मोदी के नासमझ मित्रों ने याद दिला दी। 

दिल्ली में, प्रधान मन्त्री मोदी से सवाल करते हुए गुमनाम पोस्टर नजर आए - ‘मोदीजी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया?’ फेस बुक पर यह पोस्टर ‘कोरोना’ की ही तरह तेजी से व्यापक हुआ। चारों ओर हड़कम्प कच गया। फौरन ही सारे पोस्टर हटाने और पोस्टर लगानेवालों को पकड़ने का आदेश दिल्ली पुलिस को दे दिया गया। दिल्ली पुलिस अपनी सम्पूर्ण निष्ठा, ईमानदारी और समर्पण-भाव से ‘राष्ट्र-रक्षा’ में लग गई। कुछ लोग गिरफ्तार भी कर लिए गए। पोस्टरों को फाड़ते हुए पुलिसकर्मियों के वीडियो फेस बुक पर पसरने लगे। पोस्टरों के लगने से ज्यादा चर्चा उन्हें हटाने की होने लगी। परिणामस्वरूप, जिसने पोस्टर देखे ही नहीं वह भी तलाश करने लगा और तभी रुका जब उसने पोस्टर देख/पढ़ लिया। मैं भी ऐसे ही लोगों में से एक हूँ। पोस्टर लगानेवालों का मकसद उनकी इच्छा, उनके अनुमान से कई गुना ज्यादा पूरा हो गया। मेरा मानना है कि यदि यह पुलिसिया कार्रवाई नहीं होती तो ये पोस्टर इतनी प्रमुखता और व्यापकता नहीं पाते। दो-चार दिनों का हल्ला होता और बात आई-गई हो गई होती। लेकिन ‘मूर्ख मित्र’ की सलाह ने एक बार फिर दुनिया भर में मोदी की भद पिटवा दी। 

ऐसी ही अनुभूति मुझे तब भी हुई थी जब, मुख्य मन्त्रियों के साथ चल रही बैठक में प्रधान मन्त्री मोदी ने, दिल्ली के मुख्य मन्त्री को टोक कर ‘प्रोटोकॉल’ का सवाल उठा दिया था। ‘शिष्टाचार’ का उल्लंघन करते हुए केजरीवाल उस बैठक का सीधा प्रसारण करवा रहे थे। केजरीवाल एण्ड कम्पनी के सिवाय शायद ही किसी और को इसकी जानकारी रही होगी। लेकिन खुद मोदी ने इसका उल्लेख कर इसे विश्वव्यापी कर दिया। केजरीवाल ने तो क्षमा याचना करते हुए ‘ठीक है! आगे से ध्यान रखेंगे।’ कह कर मुक्ति पा ली। लेकिन खुद मोदी ने दुनिया भर में अपनी भद पिटवा ली। लोगों ने केजरीवाल के वक्तव्य वाला, लगभग आठ मिनिटवाला वीडियो बार-बार देखा। मुझे तो पता ही नहीं था। किन्तु लगभग तेरह मित्रों ने वाट्स एप पर केजरीवाल का यह वीडियो मुझे भेजा। केजरीवाल के वक्तव्य में मुझे प्रथमदृष्टया कुछ भी अपत्तिजनक नहीं लगा। लेकिन खुद मोदी ने ‘अपनी महफिल में गैर का चर्चा’ कर, ‘गैर’ की मुराद करोड़ों गुना अधिक पूरी कर दी। यदि मोदी इस सीधे प्रसारण का जिक्र नहीं करते तो केजरीवाल का वीडियो केवल दिल्ली तक, वह भी ‘आपियों’ तक सीमित रह जाता। मुझे आज तक ताज्जुब है कि मोदी ने कुल्हाड़ी पर पैर क्यों मार दिया! शायद अपनी छवि के प्रति आत्म-मुग्धता के अतिरेक और छवि-भंग के भय से उपजी असुरक्षा की भावना केे अधीन यह अविवेक कर बैठे। उन्होंने साबित कर दिया कि ‘तानाशाह’ दुनिया का सर्वाधिक भयभीत और कायर आदमी होता है।

हमारे मालवा में कहावत है, ‘नादान दोस्त से दाना दुश्मन भला।’ इसका परिष्कृत हिन्दी रूप है - ‘मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु भला।’ लेकिन यह समझने के लिए अतिरेकी आत्म-मुग्धता से मुक्त होने का विवेक चाहिए। अतिरेकी आत्म-मुग्धता और छवि-भंग की असुरक्षा से उपजा भय सबसे पहले विवेक ही नष्ट करता है। और तब, आदमी की भद पिटना अन्तिम, सुनिश्चित परिणती होती है।

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