प्यास जगा कर जाने वाले
प्यास बुझाने कब आओगे
जब यह जाना तुम अपने हो, आशा के अम्बार लगाये
सेजरिया की चादर झटकी, जाने कितने देव मनाये
पंथ कहाँ तक देखूँ छलिया
कब तक सेजें सजवाओगे
प्यास जगा कर.....
पास-पड़ौसी सब कहते हैं, मैंने धोखा खाया है
तुमने अब तक मेरी जैसी, लाखों को तरसाया है
पाँव पड़ूँ अब सच-सच कह दो
कब ये बातें झुठलाओगे
प्यास जगा कर.....
मुझको कुछ मालूम नहीं था, प्यास किसे, कब, क्यों लगती है
आँखों के पनघट पर तुमने, क्यों समझाया, यों लगती है
तुमने जो-जो समझाया है
खुद उसको कब दुहराओगे
प्यास जगा कर.....
पहले क्यों आये पनघट पर, और क्यों प्यासे ओठ हिलाये
क्यों छलकाई मेरी गगरी, क्यों सखियों के साथ छुड़ाये
अब यदि पनघट पर न मिले तो
मरघट में ही मिल पाओगे
प्यास जगा कर.....
एक झलक ही बस दिखला जाओ, जनम-जनम की आस पुरेगी
मन कहता है, तुम आओगे, और अन्तर की प्यास बुझेगी
मुझ दुखिया को कितने जीवन
और यहाँ दिलवाओगे
प्यास जगा कर.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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