यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।
रूपम् से
कुछ दिन अब मैं नहीं करूँगा सजनी ! तेरी मनुहारें
मेंहदी महावर नहीं गाऊँगा, गाऊँगा अब अंगारे
बुरा न लाना अपने मन में
समय समय की बात है
झुलस रहा है अपना उपवन
झुलस रहे मृदु पात हैं
गीत छोड़ कर भंँवरों ने भी आज भरी हैं हुँकारें
तो फिर कैसे करूँ सलौनी! मैं भी तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....
कुछ दिन अब मैं.....
बर्फों की ये शुभ्र घाटियाँ
आज खून से लाल हैं
आग लगी केसर कुंजों में
शिकन भरा हर भाल है
खड़क रहीं हैं घर-घर खडगें, तड़फ रहीं है तलवारें
किस मुँह से मैं कर साँवरी! बतला तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....
सब से आगे चला आज तक
युग की राह बनाता हूँ,
मेरी जिद से परिचित है तू
मैं तो मौसम गाता हूँ
(पर) कोई मेरे मौसम का खून करे औ’ ललकारे
तब तो मुझे रोकनी होगी गोरी! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....
मेरे गीत सदा से तूने
गाये और गुँजाये हैं
इसीलिये ये इस ऊमर में
हर पनघट छू आये हैं
किन्तु अचानक ठहर गई हैं, हर पनघट की पनिहारें
इस बेला में कैसे कर लूँ रूपम्! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....
अब भी साथ अगर दे दे तो
मैं तेरा आभारी
और नहीं तो माफी दे दे
है मेरी लाचारी
तेरा-मेरा प्यार नहीं ये कल की पीढ़ी धिक्कारे
इसीलिये मैं नहीं करूँगा पगली! तेरी मनुहारें
कुछ दिन अब मैं.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)
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