- अशोक चक्रधर
कविवर बालकवि बैरागी निरन्तर गूँज रहे हैं। गूँज रहा है लघुता में एक महामानव। उस विराट की अनुगूँज सुनाई दे रही है। अनुगूँज उनकी गगनचुम्बी कविताओं की, उनकी लोकप्रियता की, बिन माँगे की तालियों की, हिंदी के प्रबलतम समर्थन की। अनुगूँज यारानापूर्ण यायावरी की, आवारा फक्कड़पन की, दूसरों को परास्त करनेवाली हँसी की, बुक्काफाड़ ठहाकों की, भावनाजन्य निर्भीकता की, विदेशी शत्रु के प्रति हुँकार की, देशी के प्रति प्यार की। अनुगूँज की भी अनुगूँजें सुनाई दे रही हैं, लगभग छह दशक के सान्निध्य की स्मृतियों की अनुगूँजें।
मेरे पिता श्री राधेश्याम प्रगल्भ को वे अपना बड़ा भाई मानते थे। वे हमारे घर आते थे। हम जिन-जिन शहरों में रहे, वे घर आए-खुर्जा, हाथरस, मथुरा और दिल्ली, कोई भी शहर रहा हो। वे कहीं भी रहे, हम उनके घर गए-मनासा, नीमच, भोपाल और दिल्ली। दरअसल, हमारे घुमन्तू घरों में कवियों का आना-जाना निरन्तर रहता था। बैरागी चचे, काका हाथरसीजी और मेरे पिताजी छोटी-छोटी बातों पर खूब हँसा करते थे। और उनके हास्य का कारण चलित-प्रचलित लतीफे नहीं होते थे, बल्कि वे लतीफे बनाते थे, गढ़ते थे प्रत्युत्पन्नमतियाँ गतिपूर्वक संवाद करती थीं। वे जो कह देते थे, हास्य का नया प्रकार बन जाता था। कविता में तरह-तरह के वाद उन्होंने चलाए, जैसे पर्यायवाद, वर्णविपर्ययवाद। खेलो शब्दों के साथ, नए गढ़ो। शब्दों के आगे-पीछेविशेषण-उपमान मढ़ो। वर्णों का क्रम बदल दो। शब्दों को नई अर्थवत्ता दे दो। अर्थों को नए शब्द दे दो। सिर्फ दो नहीं तीन-तीन, चार-चार शब्द दे दे ।
बैरागीजी पूछते हैं मेरे पिता से - ‘कहाँ हो?’
पिताजी उत्तर देते हैं -‘व्योम के, आकाश के, नीले गगन में।’
काकाजी पूछते हैं - ‘वहाँ कौन मिलौ?’
उत्तर मिला - ‘एक विद्युत, एक बिजली, दामिनी थी।’
बैरागीजी पुनः पूछते हैं - ‘महल के, प्रासाद के, ऊँचे भवन में कौन था?’
पिताजी कहते हैं - ‘एक महिला, एक रमणी, कामिनी थी।’
काकाजी सराहना में छड़ी उठा लेते हैं - ‘पिटौगे दोनों।’
काकाजी मुसकराते हैं। शेष दो ठहाके लगाते हैं।
काकाजी मेरे पिता को ‘बेटा राधेश्याम’ कहते थे। बैरागीजी, काकाजी को गोद लिये हुए पिताजी कहते थे। वर्ण-विपर्यय का खेल चला तो सबके नाम बदल गए। काका हाथरसी, हाका काथरसी हो गए। राधे श्याम प्रगल्भ, प्रादेशाम रगल्भ हो गए। बालकवि बैरागी, कालबबी गैराबी हो गए। फिर मिलते तो परस्पर इन्हीं नामों से सम्बोधित भी करते - ‘हाँ, काथरसी जी!’, ‘सुना रगल्भ।’, ‘हाँ, गैराबी बोल।’ यहाँ तक तो ठीक, कुछ भदेस प्रयोग भी कर लेते थे, उन पर तो और ज्यादा हँसते थे। समझ की सीमा के कारण मेरे किशोर मन को पता नहीं कैसा लगता था। जैसे लोहे के पुल को पोहे का लुल कहते थे। काकाजी विकट शब्द-शोधी थे। उन्होंने वर्ण-विपर्यय, नाम-विपर्यय, काम-विपर्यय की अनेक कविताएँ रचीं। स्मृतियों से स्मृतियाँ जुड़ी हैं। सन चौंसठ या पैंसठ की बात होगी, लालकिले के कवि-सम्मेलन के अगले दिन इण्डियन एक्सप्रेस में खबर छपी - ‘कवि-सम्मेलन वाज स्टार्टेड बाई ए चाइल्ड पोएट अशोक शर्मा। अनादर चाइल्ड पोएट बैरागी ऑल्सो रिसाइटेड हिज प्रोयम्स।’ मैं तो बालकवि था ही, बैरागीजी मुझसे दो दिन कम बीस साल बड़े थे, उनके नाम के बालकवि को भी चाइल्ड पोएट कर दिया। अखबार बैरागीजी ने ही मुझे दिखाया था। अब तक है मेरे पास वह कतरन।
जब मैं किशोर से युवा होने की दहलीज पर था, तब हमने एक प्रिण्टिग प्रेस लगाई थी। कम पूँजी में बढ़िया काम करने के संकल्प के साथ उसका नाम पिताजी ने ‘संकल्प प्रेस’ रख दिया था। शुरु के कुछ महीने जॉबवर्क किया। मैंने कम्पोजिंग सीखी, छोटे भाई ने मशीन से कागज उठाना। हमने जो पहली किताब प्रकाशित की, वह थी बालकवि बैरागीजी कीे ‘दादी का कर्ज’। अभी मैं जब समाचार-पत्रों में उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सूची पढ़ रहा था, तो हैरान रह गया। दादी का कर्ज कहाँ गई? वह पुस्तक तो मैंने खुद कम्पोज की थी। उसका कवर दुरंगी था। मथुरा के एक कलाकार ने बनाया था। दो ब्लॉक बने थे। लाल और आसमानी रंग में दो बार छपाई हुई थी। एक चित्ताकर्षक पुस्तक लेकर मैं प्रकाशक और सप्लायर के तौर पर भोपाल पहुँचा। तब वे नए-नए मन्त्री बने थे। पिताजी को आशा थी कि यह किताब सरकारी खरीद में आ जाएगी, अब तो मन्त्री बन गए हैं। खैर, मैं भोपाल गया तो खूब आवभगत हुईं। मिलनेवालों की भीड़ को छोड़कर वे मुझे अन्दर अध्ययन-कक्ष में ले गए। पुस्तक देखकर बेहद प्रसन्न हुए। मुझे उन्होंने अपनी आनेवाली फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ का गीत उसी धुन में सुनाया, जो बाद में हमने फिल्म में सुना-‘तू चन्दा मैं चाँदनी’। मैं उनके बँगले में दो दिन रुका।
चाचीजी ने बड़ा स्नेह दिया। उनके बड़े पुत्र मुन्ना और छोटे गोर्की के साथ भी खूब खेले। वे दोनों मुझसे छोटे थे। बहुत अच्छा लगा। शानदार विदाई के साथ मैं मथुरा लौट आया। कुछ दिन के बाद पिताजी के पास बैरागीजी का पत्र आया - ‘क्योंकि अब मैं मन्त्री हो गया हूँ, इसलिए सरकारी खरीद में अपनी किताब का प्रस्ताव नहीं रख सकता। कोई और रखेगा तो समर्थन नहीं करूँगा। आप मध्य प्रदेश में नहीं किसी और प्रान्त में प्रयत्न करें।’ पिताजी भी ‘घर-फूँक, तमाशा देख सम्प्रदाय’ के थे। उन्होंने कहीं और प्रयास किया हो, मुझे याद नहीं पड़ता। वह पुस्तक उदारता से बाँट दी गई। दोबारा छपी नहीं। शायद इसीलिए सूची में उस पुस्तक का नाम नहीं आया। बिना अपनी पूरी उम्र पाए काल के चक्र में समा गई। मुन्ना और गोर्की से पूछूँगा, एक प्रति तो हो शायद उनके पास।
फिर तो उनके साथ सैंकड़ों कवि-सम्मेलन किए। इस इण्टरनेट के जमाने में भी डाक विभाग का भला करते रहे अन्त तक। खादी परिधान और खादी के झोले में खूब सारे पोस्टकार्ड रखते थे। उनके पोस्टकार्ड और अन्तरदेशीय पत्र मेरे पास भी आते रहे। ऊपर लिखते थे ‘माँ’। सुन्दर-सुन्दर मोती जड़े अक्षर। हृदय से निकले अक्षर। हृदय में प्रवेश करने की क्षमता रखनेवाले अक्षर।
अस्सी के आसपास मैंने एक व्यंग्य-कविता लिखी थी--‘अपना देश तो महान है।’ उसकी शुरुआत कुछ इस तरह करता था - ‘हमारे मित्र शार्दूल सिंह विक्रीड़ीत, देश की दशा से बहुत पीड़ीत! मैंने कहा, इन बहते पनालों को रोकिए। आँसुओं को अन्दर ही सोखिए! वे बोले, भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक!’ कविता लम्बी थी। ये बात मैंने आपको इसलिए बताई कि पिछले पैंतीस सालों में चचे बैरागी मुझे जब भी मिलते थे, दुःख की नाटकीय मुद्रा बनाकर चहकते हुए कहते थे - ‘भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक!’ मैं हँसकर उनके पैर छूता था।
बीच में कुछ दिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, जब चची बीमार थीं और उनसे मिलने मैं ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीट्यूट जाता था। कालान्तर में, आदरणीया चची को रोग ने हरा दिया। वे चली गईं। चची के जाने के बाद जब मैं पहली बार बैरागीजी से मिला तो मैंने पहली बार चचे को रोते देखा। मेरी आँखें भी आँसुओं से भरी थीं। इस बार उन्होंने पहली और अन्तिम बार दुःखी स्वर में गले लगाते हुए कहा था - ‘बेटा अशोक! इन आँसुओं को मत रोक।’ हम दोनों के पास रुमाल नहीं थे।
दो हजार सत्रह के नवम्बर महीने की ग्यारह तारीख को उनसे उदयपुर के कवि-सम्मेलन में भेंट हुई थी। संवाद अपने मूल नाटकीय रूप में बहुत पहले ही आ चुका था, इस बार भी चंचलता के साथ मुखरित हुआ - ‘भैया अशोक! इन आँसुओं को मत रोक।’ आवाज में वही खनक, सम्मोहन और प्रेम का जादू। हालाँकि चची के गोलोक-गमन के बाद से उन्होंने गाना छोड़ दिया था, पर स्वर में नाटकीयता की चुम्बक थी। घुटने के दर्द के कारण बैठकर, लेकिन घण्टे भर कविताएँ सुनाईं। वाणी की ऊर्जा में कोई कमी नहीं थी। उनकी कविताएँ, हमेशा लगेगा जैसे आज भी खड़ी हैं समय के श्रोताओं के सामने!
सकर्मक क्षमताओं के बावजूद कितनी सहजता से वे चले गए। किसी कार्यक्रम से घर लौटे थे। सो गए। देर तक नहीं उठे। उठाने की कोशिशें कीं तो मालूम हुआ, वे जा चुके। वे जा चुके थे मेरी चची को गाकर गीत सुनाने।
वे चले गए। धरती पर उनके अपार आत्मीयों के आसपास उनके असंख्य संस्मरण गूँज रहे होंगे।
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(मासिक ‘साहित्य अमृत’ के जून 2018 अंक में प्रकाशित संस्मरण का सम्पादित रूप।)
भैया अशोक इन आंसुओं को मत रोक -कहते थे मेरे दादा ,रोज़नामचा है गुज़िस्तान कल का उन ज़िंदादिल इंसानों का जिनका लिखा कहा हमारे अंदर बस जाता है ,'हम ' वही हो जाते हैं। ख़्वाब सा बुनता है ये संस्मरण अशोक चक्रधर साहब का।
ReplyDeletekabirakhadabazarmein.blogspot.com
वाह! क्या बात कही! प्रत्येक लेखक सदैव सुधि पाठक की खोज में रहता है। आप जैसे पाठक, अपने प्रिय लेखक की ऐसी खोज को विराम दे देत हैं। पाठक पढ़ कर निहाल तो लेखक ऐसा पाठक पा कर निहाल!
Deleteपोस्ट को सुवासित करनेवाली इस टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।