यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।
यौवन आने वाला है
छोटी सी चिनगारी ही तो बनती आखिर ज्वाला है
अब तो अपने जन-गण पर भी यौवन आने वाला है
डाल-डाल पर पात-पात पर पाँव जमे हैं फागन के
नये-नये सिंगार हो रहे हैं उदास बैरागन के
यौवन की पहिली मुस्कानें मृदु ओठों पर आई हैं
तन गदराया, मन गदराया, साँस-साँस गदराई है
मंजिल की मालिन ने गूँथी वैभव की वरमाला है
अब तो अपने जन-गण पर यौवन आने वाला है
अंग-अंग ने समझ लिया है, ऊमर के अनुशासन को
दिल-दिमाग ने रट डाला है, यौवन के सम्भाषण को
अधिकारों के साथ ही समझा है अपने कर्तव्यों को
एक दृष्टि में समझ गये हैं हम अणु के मन्तव्यों को
विश्वयुद्ध के राजमुकुट को हमने खूब उछाला है
अब तो अपने जन-गण पर भी यौवन आने वाला है
जितना हमने सहन किया है उतना सहन करेगा कौन ?
जितने हम खामोश रहे हैं उतना कौन रहेगा मौन ?
जब-जब भी मुँह खोला हमने गीत प्यार का गाया है
विष के सागर को अंजुलि से हमने पिया, पचाया है
शैशव में ही नीलकण्ठ बन हमने प्याला ढाला है
अब तो अपने जन-गण पर भी यौवन आने वाला है
किस-किस से हम जूझ रहे हैं यह कोई क्या जानेगा?
किन्तु हमारी श्रम-गाथा को कल का युग पहिचानेगा
जितनी दौड़ नहीं दौड़ी है सबसे तेज खिलाड़ी ने
उससे ज्यादह तय करली है नरसी की इस गाड़ी ने
देव नहीं, अब इस इस बालक का श्रम साहस रखवाला है
अब तो अपने जन-गण पर भी यौवन आने वाला है
गिरने के दिन खत्म हुए हैं, शुरु हुए हैं उठने के
सुखा लिये हैं हमने अपने हरे घाव घुटने के
सिखा दिया है दृढ़ चरणों को केवल बढ़ते जाना
खुद ही मंगल तिलक लगाकर खुद को किया रवाना
चरणों पर पहिले छाले का चुम्बन भी ले डाला है
अब तो अपने जन-गण पर भी यौवन आने वाला है
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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