नाग-पंचमी

 

श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘दो टूक’ की दसवीं कविता 

यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।



नाग पंचमी

आओ
मेरे साथ हवा में उछालो
एक और नया नारा
ऐसा ही कुछ 
जिसके मानी निकलें
तुम कमाओ, मैं खाऊँ
तुम मुझे वोट दो, मैं सत्ता में जाऊँ।
तुम्हारे खाली पेटों
और पपड़ाए ओठों से
मेरा कोई राग या रिश्ता नहीं है।
क्यों दिमाग चाटते हो मेरा
कितनी फाइलें पड़ी हैं
तुम्हें दिखता नहीं है?
अरे!
तुम थके-थके क्यों लगते हो? ओफ्फो!
क्या गिरते हो!
चक्कर आता है तो बैठ जाओ
मेरी को छोड़कर बाकी कई कुसियाँ खाली पड़ी हैं।
खाली नहीं भी हो तो
धकेल दो पड़ोसी को
हाँ, हाँ, गिर पड़ो उस पर
धँस जाओ, फँस जाओ
उसकी कुर्सी में।
घबड़ाकर वह सरक जाएगा
या उठ जाएगा
सम्वेदनशील हुआ तो
मजे से लुट जाएगा!
खाली पेट, खाली हाथ
भन्नाए दिमाग और सन्नाए सपनों को लेकर.
तुम इतना भटके, घूमे
पर पृथ्वी की तरह अपनी ही कीली पर
चकराना या फिरना भी नहीं सीखे!
बरसों से चीख रहा हूँ कि
ऐसे नहीं, ऐसे गिरो
पर मेरे यार! तुम गिरना भी नहीं सीखे
लो! तुम गिरे भी तो अपने ही घेरे में।
अपने को गिराने में तुमने मेरे विरोधी को बचा लिया।
मेरी आकांक्षा और अपने आक्रोश को
तुमने इतना कैसे पचा लिया?
अब तुम्हें उठाएगा भी कौन ?
चपरासी भी चला गया है
कुत्ते को नहलाने
मोटर पांेछने
बाई साहब के पान लगाने !
अच्छा! तो तुम मुस्कराते भी हो?
याने अभी तक जी कुछ हो रहा था
बह सब नाटक था, छलावा था
गजब की है तन्दुरुस्ती तुम्हारी
खड़े हो गए वापस?
बहुत अच्छे
जियो मेरे बच्चे।
हाथ बाँधो
आँखों को वैसी ही निर्जीव करो
और एक लम्बी साँस भरो।
अच्छा हुआ जो तुम उस लावा उगलते जुलूस में नहीं गए
वे सब वहशी, गद्दार और गुण्डे हैं
दिशाहीन तो हैं ही!
चूँकि तुम संज्ञाशून्य हो
सो उगल देता हूँ एक कड़वा सत्य कि
‘उस जुलूस की दिशा यकीनन तुम हो’
पर यह समझने में तुम्हें पचास साल लगेंगे
तब तक मैं नारों की नोकों से
उस जुलूस के पचास टुकड़े कर दूँगा
सम्भावित राजपथों को पगडण्डियों में बाँट दूँगा
उड़ने वाले पाँवों के पंख काट दूँगा!
तुम मुझे ‘व्यक्ति’ समझ कर यहाँ आ गए हो
पर सुनो,
मैं ‘व्यक्ति’ नहीं ‘वृत्ति’ हूँ
तुममें बगावत और मुझमें परिवर्तन
बहुत मुश्किल है।
मैंने अपनी सम्वेदना का गला घोंट डाला
तुम क्या हो मेरे लिए?
बोलने की कोशिश मत करो
सिर्फ सुनो,
हर पाँचवें साल तुममें जागता है एक भूत
उसके लिए मैं पौने पाँच साल तक ढालता हूँ बोतलें।
हर भूत के लिए
अलग-अलग साइज की बोतल है मेरे पास।
भविष्य के लिए भूतावास बनाने हैं मुझे
वर्तमान में पलीता लगाना मेरा धर्म है
इसमें किस बात की शर्म है?
अच्छा!
तो होश आ गया है तुम्हें
बाकायदा होश में हो!
तो बैठ जाओ अपनी चेतना पर
अब मैं तुम्हें भाषण दूँगा।
भाषण बुरी चीज नहीं है
सुनने, समझने और जीवन में उतारने की चीज है
ये क्या तुम्हारी खुद की कमीज है?
अगर तुम्हारी है तो बधाई
और नहीं तो मेरे भाई
इसे वापस लौटाना मत
इसके मालिक की बेवकूफी को
तुम नासमझ बनकर दुहराना मत।
ये भूमिका है मेरे भाषण की।
अब मैं इस भाषण की विगत में जाऊँगा
यहाँ आए जरूर थे अपने पाँवों से
पर तुम्हें चार जनों के कन्धों पर ही
वापस पहुँचाऊँगा!
क्योंकि मैं ‘व्यक्ति’ नहीं ‘वृत्ति’ हूँ
तुममें बगावत और मुझमें परिवर्तन
बहुत मुश्किल है। 
जिसमें मैं बैठा हूँ न! वह साँप का बिल है।
जो भी इसमें आएगा
वह चूहे और मेंढक खाएगा।
तुम तय कर लो कि तुम क्या हो
सँपेरे? कालबेलिये?
गरुड़? मोर? मेंढक या चूहे?
मैं तो हजार बार कह चुका हूँ कि
मैं ‘व्यक्ति’ नहीं ‘वृत्ति’ हूँ
तीन सौ पैंसठ ही दिनों को बदल दिया है
नाग-पंचमी में मैंने
मुझे बीन सुनाओ, मेरी पूजा करो
दूध पिलाओ और मुझसे दस गज दूर
थर-थर काँपो, धूजा करो।
कह दिया न?
तुम ‘व्यक्ति’ से लड़ने को भीड़ जुटा रहे हो
‘वृत्ति’ से लड़ने के लिए तुम्हें नया जनम लेना पड़ेगा
समझदार को इशारा काफी है
क्या तुम्हें गेट ऑउट कहना पड़ेगा?
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।






















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