श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की अट्ठाईसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की अट्ठाईसवीं कविता
पराजय-पत्र
अपराजिता ही नहीं
अपरा हो तुम
अद्भुत! अपूर्व!!
शील और सहनशीलता
का प्रतिमान
तुम्हें भी नहीं है
जिसका अनुमान।
अपरा हो तुम
अद्भुत! अपूर्व!!
शील और सहनशीलता
का प्रतिमान
तुम्हें भी नहीं है
जिसका अनुमान।
शील और सहनशीलता
के नाम पर
सदा होती रही है
तुम्हारी परीक्षा।
क्या-क्या नहीं सहा तुमने?
कब-कब नहीं सहा तुमने
मुझे?
माँ बहिन पत्नी और प्रतिमा
हर रूप में, हर रिश्ते में
भार रहा मैं ही तुम पर।
तुम्हारे ‘समर्पण’ का
सदैव किया है दुरुपयोग मैंने।
यह ‘मैं’
यहाँ पुरुषवाची ‘मै’ है।
इसी ने तुम्हें भरमाया
भटकाया और भीरु बनाया
इसी ने तुम्हें रिश्तों के
कमल-वन में उलझाया।
माँ के सामने मैं मचला
बहिन के सामने में
सीधा नहीं चला
पत्नी के पतिव्रत पर
तिल भर नहीं पिघला
और बना-बनाकर
देवी रूपों में
तुम्हारी प्रतिमाएँ
चढ़ाता रहा फूल
लगाता रहा अगरबत्तियाँ
करता रहा प्रार्थनाएँ
माँगता रहा मनौतियाँ।
और तुम?
सहती रहीं हर क्षण
मेरे सारे पाखण्ड।
विजेता के रूप में
जब-जब भी आया
तुम्हारे सामने
तुम मुसकराती रहीं
कभी लोरी तो कभी
लावण्य गाती रहीं ।
और इशारों-ही-इशारों में
चुपचाप मुझे समझाती रहीं कि,
पुत्र से लेकर पति और पुरुष तक के
मेरे हर रूप को तुम
खूब पहचानती हो
तब भी तुम मुझे अपना
न जाने क्या-क्या मानती हो।
और तब बालू की नींव पर
खड़ा मेरा दुर्दम्य दर्प
परास्त होकर
हस्ताक्षर करता है
अपने पराजय-पत्र पर
जिसपर लिखा है
अपराजिता ही नहीं
अपरा हो तुम
शील और सहनशीलता
का प्रतिमान
तुम्हें भी नहीं है
जिसका अनुमान।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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