जूतों की तलाश, मांस के लोथड़े निकल आए, टखनों तक सूजन, घुटनों तक जलन, चुड़ैलें बनतीं सूरज की किरणें (कच्छ का पदयात्री - ग्यारहवाँ भाग)



हम लोग दादा को अवाक् होकर सुन रहे थे। हमारे ‘हाँ-हाँ’ हुँकारे के बोल भी बन्द हो गए थे। दादा कहने लगे-

‘मैंने मकरभीम से हिंगलाज माता की जय बोलकर पहला कदम कच्छ की बालू पर रखा। पीछे मुड़कर नहीं देखनेे का मन ही मन मेरा संकल्प था और मैंने बस आगे देखकर यात्रा शुरु की। यह प्रभात का पहला पहर था। पहला अनुभव जो मुझे हुआ वह यह था कि व्यर्थ ही इन निकम्मों ने कच्छ को भयावना और प्राणलेवा बता-बताकर इस देश की पावन धरती का अपमान किया है। तारों की रोशनी में धरती चम-चम चमक रही थी। सामान मेरे पास कोई ज्यादा नहीं था पर आखिर था तो सही! ज्यों ही पौ फटी और सूरज की पहली किरण ने मुझे चुम्बन दिया, मुझे लगा कि कहीं कुछ हल्की-हल्की आग सी लग रही है। सूरज की ललाई ने, जहाँ-जहाँ तक नजर जाए वहाँ-वहाँ तक मेंहदी लीप दी थी। पहले हल्का गुलाबी, फिर गहरा गुलाबी और एकाएक लाल सुर्ख होता हुआ सूरज का गोला भभूके की तरह उछलकर सफेद हो गया। मुझे हिदायत थी कि मैं दस बजते-बजते कोई दस मील दूर एक पड़ाव पर पहुँच जाऊँ। मेरे पास पाथेय के नाम पर पिण्ड खजूर और दानामोठ थे और पीने का पानी था ही। पर ज्योंही सूरज की किरणों ने कुदरत से चाँदी उधार ली कि कच्छ का मौसम मेरे लिए चुनौती बन गया। मैं कोई चार ही मील चला होऊँगा कि धरती काटने लगी और जोड़ों में पसीना बह आया। तालू सूखने लगा और शरीर नरम हो गया। सूरज की हर किरण डायन बन गई थी। हवा में गरमी और पाँव में चटके शुरु हो गए। जब मैंने अपने पाँवों को देखा तो मुझे अनायास झटका-सा लगा। मैंने देखा कि मेरे पाँवों में जूते नहीं हैं। एक क्षण को मैं ठिठका और फिर अपने आप मेरी हँसी चल गई। जूते पाँव में पहनने का भाग्य मेरा था ही कहाँ? आज तक जूते तो मेरे सिर पर पड़ते आये थे! माँ, पिता या भाई जो भी पीटते थे उनके हाथ में कभी जूता पड़ जाता तो पीठ या माथे पर। जिस चीज का रिश्ता सिर से रहा हो वह भला पाँव में कैसे आ सकती है? जमीन गरम होती जा रही थी और खड़ा रहना समय को बरबाद करना था। मैंने पहला घूँट पानी का लिया और मैं फिर चल पड़ा। कोई ग्यारह बजे तक मैं थकान से त्रस्त होकर उस पड़ाव पर आ गया जिसके लिए मुझे हिदायत दी गई थी। यहाँ आते-आते पानी की तोंग तीन चौथाई मैं पी चुका था।

‘पड़ाव पर एक प्रबन्धक रहा करता था। उसने दूर से ही मुझे देखा तो वह जोर-जोर से आवाजें देने लगा। मुझे मानव की वाणी सुनकर अपार सुख मिला। मैंने सोचा कि जो जन्म मैंने हिंगलाज माता के यहाँ दूसरी बार लिया है उसका एक दिन बच गया। मौत का डर मुझे कभी लगा नहीं। आज भी मैं मरने से नहीं डरता हूँ पर जीवन के प्रति उस दिन मुझे मीठा मोह पैदा हुआ और मैंने सोचा कि मेरे लिए जीना जरूरी है। मैं मरना नहीं चाहता था।

‘पड़ाव पर जाते ही मैंने तोंग धरती पर रखी और मैं चिलचिलाती धूप में खुली धरती पर लेट गया। प्रबन्धक ने मुझे पानी पिलाया और ढाढस देकर सहलाया, पुचकारा, बैठा दिया और रास्ते के समाचार पूछे। मेरी आँखों में अविरल आँसू थे और मैं जीने के लिए छटपटा रहा था। मेरी उम्र का यह सत्रहवाँ वर्ष था और मुझे लग रहा था कि अब मैं नहीं जी सकूँगा। गले में काँटे निकल आये थे। ऐसा लगता था कि पानी को पीता ही जाऊँ।

‘सारी दोपहरी मैंने वहीं काटी। जो कुछ मेरे पास खाने को था वह थोड़ा-सा मैंने खाया और तोंग का बचा हुआ पानी पीकर प्रबन्धक से बतियाता रहा। प्रबन्धक बड़ा भला आदमी था। उसने मुझे बहुत ही मानवीय व्यवहार दिया। मैंने चाहा कि वह मेरे लिए जूतों की व्यवस्था कर दे पर उसके पास कोई साधन था नहीं। उसने मुझे बहुत हिम्मत दी और आगे के सफर की कठिनाइयाँ बताकर कहा कि मुझे अपनी यात्रा शाम चार बजे से फिर शुरु कर देनी चाहिए। यदि मैं आराम के चक्कर में फँस गया तो इस पड़ाव से आगे जाना मेरे लिए कभी भी सम्भव नहीं होगा। अपनी भाषा में उसने ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ वाली बात बताई। उस उम्र में मैंने इस कहावत से बहुत प्रेरणा ली। यहाँ मुझे फिर माँगीलाल याद  आया। मेरा अन्धा साथी याद आया। आज मुझे लगा कि माँगीलाल कितना भाग्यशाली है जो यहाँ की मुसीबत से बच गया। अन्धे को भगवान ने अन्धा बनाकर उस पर कितना करम किया है!

‘दोपहर की एक गहरी नींद ने मुझे फिर ताजगी दी। मैं पानी पीकर कुछ पिण्ड खजूर और दानामोठ खाकर फिर पानी पीया। अब मैंने अपनी और से प्रबन्धक से सवाल किए।

‘प्रबन्धक ने बताया कि आगे पानी की चिन्ता मैंने नहीं करनी चाहिए। इस पड़ाव पर चाहे जितना पानी मिल जाएगा। वहाँ पर पानी मोल भी मिलता था और धर्मादे का भी। साधुओं को यहाँ पानी बिना पैसों के ही मिलेगा। मुझे उसने नहीं बताया कि वहाँ पानी कहाँ से आता था। मेरा अनुमान रहा है कि मकरभीम से या और कहीं से वहाँ ऊँटों द्वारा पानी आता रहा होगा। न वहाँ बस्ती, न कोई पंछी। एक पक्का मकान मात्र बना हुआ था जिसमें प्रबन्धक रहा करता था और पानी का स्टॉक रखा रहता था।

‘शाम चार बजे के करीब मैंने अपनी तोंग फिर से भरी। मुझे पानी का पैसा नहीं देना पड़ा। मैं साधु जो था। पूरे 26 मील की यात्रा बाकी थी। मुझे लखपत नामक स्थान पर आना था। समय के नाम पर मेरे पास दूसरे दिन सबेरे दस बजे तक का समय था। पूरे 18 घण्टे और यात्रा 26 मील की! मैं सिहर गया। पर प्रबन्धक ने कहा कि रात की यात्रा कम तकलीफदेह रहती है। अपने इष्ट का नाम लो और चल पड़ो। यह भी सख्त हिदायत मुझे दी गई थी कि यदि कहीं पानी का हिलोर उठ आए तो जब तक ज्वार उतर नहीं जाये, मैं उसी स्थान पर खड़ा रहूँ जहाँ कि खड़ा था। कुछ भी हाय-तौबा मैंने की तो फिर रास्ते और जिन्दगी की सारी गारण्टी खतम समझो। मार्गदर्शक बल्लियों को मुझे न तो छोड़ना चाहिए न छेड़ना चाहिए। मैंने अपनी बची-खुची हिम्मत बटोरी और हिंगलाज माता की जय बोलकर प्रबन्धक महोदय को नमस्कार करके मैं चल पड़ा।

‘कच्छ रन में रात का सफर अपेक्षाकृत कम तकलीफदेह होता है। ज्यों-ज्यों सूरज अरब सागर की बाँहों में जाता है, त्यों-त्यों काया कुछ ठण्डी होती जाती है। इस पड़ाव से दो-चार फर्लांग चलने पर ही धरती गीली शुरु हो जाती है। समन्दर का पानी यहाँ तक ठेप मारता है। कभी कम, कभी ज्यादा पर पानी बराबर बना रहता है। धरातल में नमी बहुत रहती है। कहीं-कहीं तो टखनों से ऊपर तक पानी आता है।

‘शाम होते-होते मेरे साथ एक दिक्कत पेश आई। इस तकलीफ ने मुझे असहाय कर दिया। मैंने देखा कि मेरे पाँवों के नीचे और आसपास का चमड़ा नमक, पानी तथा रेत के कारण कटना शुरु हो गया है और नमकीन पानी के सतत सम्पर्क ने उसमें से माँस के लोथड़े निकालने शुरु कर दिये हैं। पाँवों में जलन हो चली थी और मेरे अनुमान से कोई बाईस मील मुझे चलना शेष था। यह सम्भावना साफ थी कि मेरा यह कष्ट यात्रा के साथ-साथ बढ़ेगा ही। कम होने का सवाल ही कहाँ था! इसकी मेरे पास दवाई भी नहीं थी। रुकना तो मौत को निमन्त्रण देना था। चलता था तो कहीं-कहीं पानी के कारण छपाक्-छपाक् आवाज आती थी। इसके सिवाय मुझे कच्छ रन की इस पूरी यात्रा में कहीं एक पंछी का स्वर भी नहीं सुनाई दिया। साथी-संगाती तो सपने की बातें हो गये थे। न कुछ दिखाई पड़ता था, न कुछ सुनाई देता था। एक सन्नाटा....मीलों लम्बा सन्नाटा। अपने आपको भाग्य के भरोसे छोड़ने के सिवाय मैं कर भी क्या सकता था? सारी रात चला, रात में प्यास मुझे कम ही लगी। वीरानों और सन्नाटों का भी अपना एक सौन्दर्य होता है, यह मुझे उस दिन मालूम पड़ा। रात के उजाले में मैं कम से कम चार-चार बल्लियाँ देख रहा था। अब मैंने उन बल्लियों को ही अपना साथी मान लिया था। प्रत्येक बल्ली के पास जाकर मैं पल-दो पल ठहरता। उससे बात करता। उसको धीरे से सहलाता और कान लगाकर उसको सुनने की चेष्टा करता। मैं चाहता था कि यह बल्ली कुछ बोले और कभी-कभी लगता भी था कि यह कुछ बोलेगी। रात को मृगतृष्णाएँ मुझे सुन्दर लगीं। अब मैंने रन की समस्याओं से खेलना शुरु कर दिया था।

‘फिर वैसा ही खूबसूरत सवेरा हुआ। मैं जानता था कि इस सूरज की गोद में चाँदी-सोने के कंगन पहने वे किरणें चली आ रही हैं जो पहले चुम्बन के साथ ही चुड़ैलें बन जाएँगी। पर अब यह मेरी नियति थी और मैं इसके आगे नतमस्तक था। मैंने तोंग का पानी एक बार फिर से देखा। कुल्ला किया। और उस सुनसान वीरान में मस्ती में आकर एक लोकगीत छेड़ दिया। मेरे पाँवों से लहू बह रहा था। माँस के लोथड़े बाहर छिटक रहे थे। जलन घुटनों तक आ गई थी और टखनों तक सूजन थी। रात में मैंने कहीं-कहीं पिण्डलियों तक पानी में रास्ता काटा था। अब पानी समन्दर की तरफ लौट रहा था। न कहीं पाँवों के निशान थे, न कहीं कोई चिह्न। हाँ, उन बल्लियों के आसपास जड़ों में एक कुण्डल-सा पानी बना-बनाकर पलट रहा था। मैंने हर बल्ली के तल को देखा और उस कुण्डल को नापने का उपक्रम किया। दो बल्लियों से मेरी तोंग टकराई और फिर मैंने यह मजाक छोड़ दिया। कहीं तोंग फूट गई तो जान से हाथ धोना पड़ेगा। सूरज मेरे बाएँ था और मैं बराबर दक्षिण में बढ़ता जा रहा था। गति मेरी जरूर कम हो गई थी पर शरीर ने इस कष्ट को लाचारी में अपना धर्म मान लिया था। मुझे याद है मैं गीत पूरा नहीं गा सका था और मेरे गले में प्यास और जलन के काँटे पड़ गये थे। मैंने एक घूँट पानी और पीया। ठिठककर आसमान देखा। आँखें चौंधिया गईं। पल-भर को गर्दन झटकी और फिर चल पड़ा।

‘सूरज की बदतमीजी बढ़ती जा रही थी। मेरी बेचैनी पहला छोर छोड़ चुकी थी। सारी रात का सफर जितना भयावह नहीं था उतना अब शुरु होनेवाला था। मुझे पता भी नहीं था कि मुझे कितना और चलना है। मैंने कहा न कि रेत और सन्नाटों के सिवाय अब मैं सिर्फ सूरज को देख सकता था। पर चूँकि बीते कल, इसी समय करीब छः घण्टों का सफर कर चुका था सो मुझे कष्टों का नया परिचय आज नहीं हुआ। फर्क यही था कि आज की जमीन भी नम और गीली थी। पाँव मेरे बराबर कटते जा रहे थे।







किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी



यह किताब, दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती रौनक बैरागी याने हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराई है। रूना, राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य है और इस किताब के यहाँ प्रकाशित होने की तारीख को, उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।

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