अथ ‘रवि-कृपा’: तस्मै श्री गुरवै नमः

जिस प्रकार पूत भले ही कपूत हो जाए, माता, कुमाता नहीं होती उसी प्रकार शिष्य भले ही अशिष्ट, स्खलित हो जाए, गुरु सदैव उसकी बेहतरी की चिन्ता और कोशिशें करता रहता है। मेरे साथ आज यही हुआ।

हिन्दी ब्लॉग जगत के पुरोधा श्री रवि रतलामी मेरे ब्लॉग गुरु हैं। उन्हीं की दया-माया और कृपा से मैं ब्लॉग लिखना सीख पाया और उनकी अपेक्षाओं के सर्वथा प्रतिकूल, ‘निष्क्रिय आचरण’ करते हुए भी अब तक ब्लॉग जगत में बना हुआ हूँ। 

16 अप्रेल 2021 से मैंने दादा श्री बालकवि बैरागी। के काव्य संग्रह अपने ब्लॉग पर देना शुरु किया। यह जानकर रविजी बहुत खुश हुए। मेरी खूब सराहना की और प्रोत्साहित किया। लेकिन मई में उन्हें मालूम हुआ कि मैं एक-एक अक्षर टाइप कर रहा हूँ तो वे पहले तो दुःखी हुए और फिर खूब नाराज हुए। उन्हें लगा कि इस क्षेत्र में आए तकनीकी बदलावों और उपलब्ध औजारों की जानकारी मुझे भली-भाँति होगी और इस काम में मैं उनका उपयोग कर रहा होऊँगा। लेकिन वास्तविकता इसे ठीक उलटी थी। रविजी बहुत आहत हुए। उन्हें अपने इस ‘नालायक और गुस्ताख शागिर्द’ पर बहुत गुस्सा आया। उनकी बातों और पीड़ा भरे स्वरों से लगा, मानो मेरी इस मूर्खतापूर्ण हरकत से वे खुद को अपमानित से महसूस कर रहे हैं। मेरा लिहाज करते हुए, मर्माहत स्वरों में उन्होंने पूछा - ‘यह सब करते हुए आपको एक बार भी मेरी याद नहीं आई? हद है! आप कमाल करते हैं। अब, आपसे कहें भी तो क्या?’  और उन्होंने मुझे तत्क्षण ही ‘ओसीआर2’ उपलब्ध कराया। इस ‘गुरु-कृपा’ ने तो मेरी अंगुलियों को पंख लगा दिए। रविजी का दिया यह औजार मेरे लिए जादुई छड़ी था।  सात-सात, आठ-आठ पेजों की, दस-दस कहानियाँ मैंने एक दिन में तैयार कर लीं। मुझे हमारे स्कूली दिनों की कहावत ‘मिण्ट का काम फोरिण्ट में’ (मिनिट का काम पल भर में) याद आ गई।

रविजी-प्रदत्त इस औजार की वजह से ही मैं ‘कच्छ का पदयात्री’ बहुत ही सहजता से ब्लॉग पर दे पाया। रविजी, इस रोमांचक यात्रा-वृतान्त की प्रत्येक कड़ी पढ़ रहे थे। कल, तीन अगस्त को इसकी अन्तिम कड़ी प्रकाशित होते ही रविजी का सन्देश आया कि वे इस वृतान्त को निःशुल्क सार्वजनिक उपयोग के लिए ‘पीडीएफ ई-बुक’ के स्वरूप में प्रकाशित कर रहे हैं। उन्होंने इस हेतु मेरी औपचारिक स्वीकृती चाही। रविजी का यह शिष्टाचार और शालीनता यह मेरे लिए ‘चींटी पर पंसेरी’ की तरह था। रविजी का यह सन्देश पढ़ते-पढ़ते ही मुझे रोना आ गया। बड़ी मुश्किल से जवाब लिख पाया - ‘यह आपका सौजन्य और बड़प्पन है। यह सब आपका ही है। त्वदीय वस्तु तुभ्यम् समपर्यामि कृष्णः।’

और चौबीस घण्टे भी नहीं बीते कि रविजी ने ये दो लिंक भेज दीं। एक पर इसे पढ़ा जा सकता है और दूसरी पर सुना जा सकता है।

तय नहीं कर पा रहा कि इस कृपापूर्ण सौजन्य के लिए रविजी को क्या कहूँ? किस तरह कृतज्ञता ज्ञापित करूँ? मेरे दादा की इस कृति को निःशुल्क ई-बुक में प्रस्तुत कर रविजी ने इसे जो व्यापकता प्रदान की है, उससे उपजी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मेरे पास सचमुच में शब्द नहीं हैं। वे सामने होते तो अपने हस्ताक्षर किया हुआ कोरा कागज उनके सामने सरका देता - वे जो उपयुक्त समझें, लिख लें।

सो, दादा श्री बालकवि बैरागी की यह कृति (कच्छ का पदयात्री) पढ़ने के लिए अब आप  मेरे ब्लॉग के मोहताज नहीं रहे। ब्लॉग पर यह किश्तों में उपलब्ध है जबकि यहाँ तो यह एक-मुश्त उपलब्ध है। इसे पढ़िए भी और सुनना चाहें तो श्रवण सुख भी लें।

पढ़ने के लिए लिंक -

https://archive.org/download/kachh-ka-pad-yatri-bal-kavi-bairagi/kachh%20ka%20pad%20yatri%20bal%20kavi%20bairagi.pdf

सुनने के लिए लिंक -

https://archive.org/details/kachh-ka-pad-yatri-bal-kavi-bairagi

जैसे गुरु मुझे मिले, वैसे गुरु सबको मिले। 

तस्मै श्री रविजी नमः


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