श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की बाईसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की बाईसवीं कविता
आज का अखबार
क्षितिजों पर स्वस्तिक माँडती ऊषा
स्वस्तिकों का स्तवन करता सूरज
आकाश का अलस आलिंगन करती सुषमा
तारों से छिप-छैंया खेलती छटा
इधर धरती पर
रँभाती गैयाँ
कुलाँचें भरते वत्स
खिलते फूल
चटखती कलियाँ
गुनगुनाते भँवरे
उड़ती तितलियाँ
कमानीदार कोंपलें
नाचते मोर
कलरव करते पंछी
आह्लाद बरसाती बयार
यह सब दिखाई पड़ा
बरसों बाद पहली बार
तो बरबस फूट पड़ी ऋचाएँ
अब आपको
क्या-क्या बताएँ?
दरवाजा खटखटाया खुशबू ने
आवाज दी सौरभ ने
लाँघकर देहरी
बाहर तो निकल।
भूल जा धन और ऋण का गणित
जी भर लूट ले
सम्पदा-समृद्धि-अनन्त वैभव
खोल ले अपने भाग
हो जा सौ क्या हजार गुणा
देख तो सही अद्भुत आकाश को
आ भी जा प्रकृति की बाँहों में।
चल नहीं पाता तो
बैठ जा घुटनों के बल
माँड कर ओक
पी ले जितना पी सके
रन्ध्र-रन्ध्र में समा ले समष्टि को
प्राणों में बसा ले अलख वृष्टि को
कोई नहीं है रोकनेवाला
कौन है तुझे टोकनेवाला ?
बन्द करके कपाट
आदत डाल ली अँधेरे की
भूल गया अठखेलियाँ
सुबह-सवेरे की।
पागल नहीं थे पुरखे तेरे
वे गायत्री पढ़ते नहीं रचते थे
उनके मन्द्र षड़ज से
नक्षत्र तक कहाँ बचते थे?
लगते ही पहला सुर
उछल पड़ता था सूरज
बावली हो जाती थी ऊषा
आँगन बुहारना भूल जाती थी सुषमा
छीना-झपटी बिसर जाती थी छटा
अनुशासित हो जाता था सारा अटपटा।
और तू?
उनका उत्तराधिकारी
अपने ही बुने अँधेरे में
फटा दूध पी रहा है
तिस पर प्रमाद ये कि
तू ठीक जी रहा है।
पढ़ा तूने उस अलख का
आज का अखबार?
न कोई छापे की भूल
न कोई व्याकरण की गलती
उफ।!
कितना सही वाक्य विन्यास
न हत्या, न बलात्कार
न हिंसा, न हाहाकार
हर पृष्ठ पर सात्विक
और सत्य समाचार।
शब्द-शब्द ब्रह्म
पंक्ति-पंक्ति रस
अनुस्वार तक आनन्ददायी
इधर से पढ़ो कि उधर से
कविता....कविता और केवल
कविता
तिल भर भी फैली नहीं स्याही
अब बाहर भी निकल
मेरे भाई!
मसलकर आँखें
आँगन में आ जा
साँसों में समेट ले
ये सारा कुबेर-धन
आज से ही आदत डाल
उगता सूरज देखने की
वरना
इस आपा-धापी में
तू ऊब जाएगा
और चाहे मत मान
मेरी बात
पर सूरज से पहले ही
तू डूब जाएगा।
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स्वस्तिकों का स्तवन करता सूरज
आकाश का अलस आलिंगन करती सुषमा
तारों से छिप-छैंया खेलती छटा
इधर धरती पर
रँभाती गैयाँ
कुलाँचें भरते वत्स
खिलते फूल
चटखती कलियाँ
गुनगुनाते भँवरे
उड़ती तितलियाँ
कमानीदार कोंपलें
नाचते मोर
कलरव करते पंछी
आह्लाद बरसाती बयार
यह सब दिखाई पड़ा
बरसों बाद पहली बार
तो बरबस फूट पड़ी ऋचाएँ
अब आपको
क्या-क्या बताएँ?
दरवाजा खटखटाया खुशबू ने
आवाज दी सौरभ ने
लाँघकर देहरी
बाहर तो निकल।
भूल जा धन और ऋण का गणित
जी भर लूट ले
सम्पदा-समृद्धि-अनन्त वैभव
खोल ले अपने भाग
हो जा सौ क्या हजार गुणा
देख तो सही अद्भुत आकाश को
आ भी जा प्रकृति की बाँहों में।
चल नहीं पाता तो
बैठ जा घुटनों के बल
माँड कर ओक
पी ले जितना पी सके
रन्ध्र-रन्ध्र में समा ले समष्टि को
प्राणों में बसा ले अलख वृष्टि को
कोई नहीं है रोकनेवाला
कौन है तुझे टोकनेवाला ?
बन्द करके कपाट
आदत डाल ली अँधेरे की
भूल गया अठखेलियाँ
सुबह-सवेरे की।
पागल नहीं थे पुरखे तेरे
वे गायत्री पढ़ते नहीं रचते थे
उनके मन्द्र षड़ज से
नक्षत्र तक कहाँ बचते थे?
लगते ही पहला सुर
उछल पड़ता था सूरज
बावली हो जाती थी ऊषा
आँगन बुहारना भूल जाती थी सुषमा
छीना-झपटी बिसर जाती थी छटा
अनुशासित हो जाता था सारा अटपटा।
और तू?
उनका उत्तराधिकारी
अपने ही बुने अँधेरे में
फटा दूध पी रहा है
तिस पर प्रमाद ये कि
तू ठीक जी रहा है।
पढ़ा तूने उस अलख का
आज का अखबार?
न कोई छापे की भूल
न कोई व्याकरण की गलती
उफ।!
कितना सही वाक्य विन्यास
न हत्या, न बलात्कार
न हिंसा, न हाहाकार
हर पृष्ठ पर सात्विक
और सत्य समाचार।
शब्द-शब्द ब्रह्म
पंक्ति-पंक्ति रस
अनुस्वार तक आनन्ददायी
इधर से पढ़ो कि उधर से
कविता....कविता और केवल
कविता
तिल भर भी फैली नहीं स्याही
अब बाहर भी निकल
मेरे भाई!
मसलकर आँखें
आँगन में आ जा
साँसों में समेट ले
ये सारा कुबेर-धन
आज से ही आदत डाल
उगता सूरज देखने की
वरना
इस आपा-धापी में
तू ऊब जाएगा
और चाहे मत मान
मेरी बात
पर सूरज से पहले ही
तू डूब जाएगा।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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