यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
व्याकुल राष्ट्र-पताका से
(जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर एक रचना)
काँप मत मेरे तिरंगे
सोच मत मेरे तिरेंगे
मत समझ
इन मुट्ठियों की
पकड़ ढीली हो गई है।
हाँ भले उस चोट से
आँखें हमारी चार पल को
कुछ नम कि गीली हो गई हैं
पर, तू काँप मत मेरे तिरंगे।
(जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर एक रचना)
काँप मत मेरे तिरंगे
सोच मत मेरे तिरेंगे
मत समझ
इन मुट्ठियों की
पकड़ ढीली हो गई है।
हाँ भले उस चोट से
आँखें हमारी चार पल को
कुछ नम कि गीली हो गई हैं
पर, तू काँप मत मेरे तिरंगे।
हो गई है कुछ अचाही
किन्तु फिर भी होश मेरे देश ने खोया नहीं है
छटपटाया है भले ही कुछ क्षणों को
किन्तु जागा हौसला मेरे वतन का
लड़खड़ाकर रंच भर सोया नहीं है।
देख ले फौलाद फिर से इन नसों में बह चला है
और जबड़े भिंच गए हैं
धुन्ध सारी छँट गई है
तान कर सीना, उठी है हर जवानी
और नोकों से हलों की
बाँझ धरती की अंगरखी
एक क्या, सौ-सौ जगह से फट गई है।
भुतनियों-सी बाल खोले चिमनियाँ
सिर झटककर फिर खड़ी ललकारती हैं
धड़धड़ाकर चल पड़ी फिर से मशीनें
और नदियाँ वेग से फुँफकारती हैं।
कसम उसकी जो कि हमसे अनकहे ही चल दिया
कसम उसकी जो कि तुझसे यूँ लिपट कर सो गया है।
कसम उसकी जो कि कण-कण में दिखाई पड़ रहा
किन्तु फिर भी आँख से कुछ दूर जैसा हो गया है।
कसम उसकी उस कलाई की
कि जिसकी पकड़ में आधी सदी तूने गुजारी है
कसम उसकी कि जिसने दी तुझे इतनी बुलन्दी
और अपने खून से रंगत तेरी जिसने सँवारी है।
बाप, माँ, बेटी, जँवाई और अपनी प्रियतमा
जो निछावर कर गया तेरी बुलन्दी पर
जो अकेली लाड़ली प्रियदर्शिनी अपनी निशानी को
और राखी बाँधने वाली सगी दोनों बहिनियों को
और दो कमसिन मयूरी के मनोहर लाड़लों को
सिर्फ इस खातिर बिलखता रख गया है कि
उसके बाद उसकी राख को
मुट्ठियाँ भर-भर उड़ा दें या बिछा दें
खेत, खलिहानों, वनों में
और फिर धीरज रखें अपने मनों में
और पोंछें अश्रु सारे देश के।
हाँ उसी के लाड़ले
सूरमा उस बाँकुरे के हम हठीले
आज तुझसे कह रहे हैं
हाथ रख-रखकर दिलों पर
इस्पात के हैं बोल ये
कौल मर्दों का, जुबाँ है नौजवानों की,
कि जब तलक इन पुतलियों में रोशनी है
और धड़ पर शीश है
तब तलक तेरे लिए हम एक पल भी
ये पलक झँपने नहीं देंगे
अब कॉँपेगा तो गगन या शेष का फन
ऐ हमारी कौम के परचम! तुझे कँपने नहीं देंगे।
तू फहर, ऊँचा फहर और उस ही शान से
काँप मत मेरे तिरंगे
सिसक मत मेरे तिरंगे।
मत समझ
इन मुट्ठियों की पकड़ ढीली हो गई है
हाँ भले उस चोट से
आँखें हमारी
चार पल को कुछ नम
कि गीली हो गई हैं
पर तू काँप मत मेरे तिरंगे।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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