श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की सत्रहवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की सत्रहवीं कविता
दीप ने मुझसे कहा
मैं धरा पर धर्म हूँ
संचेतना का
हूँ मनुज का समर-साथी
शस्त्र भी हँ, शास्त्र भी
या अलौकिक सर्जना
लौकिक जगत की
घोरतम से युद्ध का
पैदल सिपाही
दीप स्तम्भों का
सुकोमल गीत हूँ
देहरी पर अल्पना का
भाष्य हूँ
और मैं ही हूँ
मुँड़ेरों का महाजन
हूँ तमिस्रा से
समर-संयोजना का
भूमि पूजन।
अर्घ्य हूँ अन्तर्जगत में अहर्निश
जाग्रत क्षितिज का
ज्वलित ज्योतित-जगमगाते
पितृवत् नक्षत्रगण का
ऋण चुकाने आ गया हूँ
आपके संसार में
हूँ समर्पित मैं
प्रबल संकल्प को
क्या हुआ जो हूँ लघुतम
देह के आकार में।
ज्योति सुत हूँ ज्योति माँ का
हूँ निडर, निर्भीक हूँ
भूमिका मेरी मुझे देकर
कभी भी देख लो
मंच पर काली अमावस के
बहुत ही ठीक हूँ।
-----
संचेतना का
हूँ मनुज का समर-साथी
शस्त्र भी हँ, शास्त्र भी
या अलौकिक सर्जना
लौकिक जगत की
घोरतम से युद्ध का
पैदल सिपाही
दीप स्तम्भों का
सुकोमल गीत हूँ
देहरी पर अल्पना का
भाष्य हूँ
और मैं ही हूँ
मुँड़ेरों का महाजन
हूँ तमिस्रा से
समर-संयोजना का
भूमि पूजन।
अर्घ्य हूँ अन्तर्जगत में अहर्निश
जाग्रत क्षितिज का
ज्वलित ज्योतित-जगमगाते
पितृवत् नक्षत्रगण का
ऋण चुकाने आ गया हूँ
आपके संसार में
हूँ समर्पित मैं
प्रबल संकल्प को
क्या हुआ जो हूँ लघुतम
देह के आकार में।
ज्योति सुत हूँ ज्योति माँ का
हूँ निडर, निर्भीक हूँ
भूमिका मेरी मुझे देकर
कभी भी देख लो
मंच पर काली अमावस के
बहुत ही ठीक हूँ।
-----
संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.