‘दो टूक’ की तेरहवीं कविता
यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
अधूरी पूजा
हम तोड़ रहे हैं वचन एक
जो बड़े विमर्श विचार सोच के बाद
दिया था विश्व-नियन्ता को
किसी और ने नहीं
हमारे पुरखों ने।
जो बड़े विमर्श विचार सोच के बाद
दिया था विश्व-नियन्ता को
किसी और ने नहीं
हमारे पुरखों ने।
सुजला सुफला रत्नप्रसूता पुण्य भूमि को
अनगिनती उपहार दिए उस ईश्वर ने
उनमें से दो उपहारों पर
मुख्य रूप से हमने अपने मन के फूल चढ़ाए हैं।
उनके नाम बड़े पावन हैं
बहुत सरल हैं
नाम एक का है ‘श्रद्धा’
और दूसरा ‘निष्ठा’ है
‘आस्था’ औ ‘विश्वास’ अनोखे आसन हैं
जिन पर ये उपहार सजाकर रखे हैं
इन उपहारों के प्रकाश में
दिव्य संस्कृति भारत की
युग-युग से जगमग करती है
सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग
ये चारों सिंहासन हैं
जिन पर हमने पधराई हैं चार मूर्तियाँ
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यद्व शूद्र के रूपों की
और युगों के क्रम से
हम गाएँगे अर्चन-वन्दन इन चारों अवतारों का।
ऐसा वचन दिया था
हमने नहीं हमारे पुरखाओं ने।
श्रद्धा-निष्ठा के उपहार चढ़ा कर माथे से
उस विश्व-नियन्ता ईश्वर को।
किन्तु हाय!
हम तोड़ रहे हैं उस क्रम को
याकि वचन को
समझ बूझकर भी अनजान बने हैं
और अधूरी पड़ी हमारी शुुचि पूजा
संस्कृतियाँ लज्जित हैं हम पर
उपहार मलिन हों रूठ रहे
पुरखा हमको देख रहे हैं क्रोधित हो
क्यों देगा आशीष हमें वह मन्दिर
जिसके तीन देव पुज नए
परन्तु चौथा खड़ा अपूजा हो
वह सतयुग था
जब हमने पूजा ब्राह्मण को
वे ब्राह्मण जो ऋषि रूपों में जग से दूर गुफाओं में बैठे
नाद ब्रह्म में लीन प्रार्थना करते थे
‘प्रभु करना कल्याण विश्व का’।
शक्ति पुंज थे, दिव्य रूप थे
गुफा-कन्दरा के वासी।
हम दैहिक, दैविक, भौतिक ताप मिटाने को
उनका वन्दन गाते थे
उनका पूजन करते थे।
सचमुच ही उनके प्रताप से
भरत खण्ड का यश फैला।
दिगदिगन्त में फैली सुषमा भारत की
इतिहास हमारा कहता है
ओर बोलता है अतीत कि
सतयुग के सिंहासन पर
पूज लिया हमने ब्रह्मण।
वह त्रेता था
जब अनाचार, अपहरण, अशिक्षा, दुराचार
साकार हो गया रावण में
त्राहिमाम् कर उठा देश
दब गया मनुज जब दैत्यों के
दुःशासन में
इन्द्र तलक हो गया पराजित
सबल देव सब बन्दी थे
संस्कृति दहाड़ें मार उठी
तब किया हमारे भरत खण्ड ने आवाहन
नहीं विलासी देवों का
लेकिन याद किया क्रम को।
वरदाया फिर से मानव के विक्रम को।
आस लगाई भारत ने तब नहीं और से
लेकिन केवल क्षत्रिय से।
इतिहास हमारा कहता है
और बोलता है अतीत
कि, दशरथ का वह तपस्वी बेटा
तीर कामठेवाला वह रघुवंशी राघव
पिताज्ञा को शीश चढ़ाकर
लिए साथ में भ्राता को
सरला, सुमुखि गाता को
पद-यात्रा कर गया समूचे भारत की
पग-पग पर बन गया काल दानवता का
और पाट कर पाषाणों से सागर को
मस्तक ऊँचा करके आया मानवता का
यह थी पूजा क्षत्रिय की
या मानव के अपने प्रिय की।
और पीठ पर लद कर व्याकुल त्रेता की
राजनीति या धूर्तनीति से भरा-पुरा द्वापर आया।
पुनरावृत्ति हुई दानवी माया की
देवर, भाभी पर ललचाया ।
साम्राज्यों की आग लगी और बहने लगे पवन उन्चास
भरी सभा में नारी की लज्जा पर लपका जब विनाश
आर्तनाद कर उठीं द्रौपदी के स्वर में जब संस्कृतियाँ
तब बजाज बनकर आया वह नटनागर वह बहुरूपिया
हमने उसको तिलक लगाकर उसके चरण पखारे थे
और सुदर्शन की महिमा के भावुक स्वर
उच्चारे थे।
उस बजाज की एक तर्जनी उठी
और सब बदल गया
कुरुक्षेत्र में सात बचे बस
यम ने सबको निगल लिया।
किन्तु यहाँ उस बहुरूपिये ने
वृथा कर दिया श्रम सारा
यदुवंशी क्षत्रिय पुजवा कर
भंग कर दिया क्रम सारा।
वह यदुवंशी था क्षत्रिय था
या मानव का अपना प्रिय था
वह कान्हा था नटनागर था
आकांक्षाओं से परिपूरित
एक समूचा सागर था।
इतिहास हमारा कहता है
और बोलता है अतीत
यूँ बजाज बहुरूपिये की या यदुवंशी क्षत्रिय की
पूजन, अर्चन, आराधन में
पूरा द्वापर गया बीत।
और आज जब कलियुग है
विज्ञान विनाशक बनता है
बात-बात पर साँस-साँस पर
बैर बराबर ठनता है
क्रम टूटा हमसे जो द्वापर में
हम उस पर बैठे पछताते हैं
डालर, रूबल या रुपये के नाना रूपों में
हम वैश्य वर्ण पर अपना हृदय चढ़ाते हैं
हम पूज रहे हैं वैश्य रूप अवतारी को।
अध्यात्म पुजा, शौर्य पुजा, व्यापार पुजा
पर पूज नहीं पाए हैं श्रम के सच्चे संस्कारी को।
लो लार टपकती एटम की
वह विश्व निगलने वाला है
कलियुग का जीवन अस्थिर है
जब युग ही मिटने वाला है
तब, कब पूजेंगे बोलो हम इस चौथे देव अपूजे को?
जब तक कि शूद्र नहीं पुजता
समृद्धि, सौख्य सब दुर्लभ है।
इतिहास हमारा कहता है
और बोलता है अतीत कि
अब तक केवल शूद्र प्रतीक कहाता आया है ‘श्रम’ का
और भभकती भौतिकता
औ’ उखड़ी साँसों वाले कलियुग में
यही देव अन्तिम है संस्कृतियों के क्रम का
यह देव नहीं पुजता जब तक
जब तलक नहीं इसका वन्दन होगा
तो तीन देव भी कब देंगे आशीष हमें?
यह भारत कब नन्दन होगा!
यह देश कि जसमें राह पड़े कंकड़-पत्थर को
पीपल छैंया में पधरा
यदि एक सुहागन
दो लोटे पानी उँडेल दे
तो पाँवों को पीड़ादाई वह पत्थर
पीड़ा-हर शंकर बन जाता है
या कि ऊँगलियाँ लग जाएँ सिन्दूर भरी तो
चावल, खिचड़ी, दही, दूध, लपसी, हलुवा
जैसे नैवेद्यों से सन जाता है।
श्रद्धा, निष्ठा, आस्था, विश्वासों
की संस्कृतियों वाले महादेश में
बना हुआ है एक अपूजा देव भिखारी
और भरी थाली ले पूजा की
आराधक बतलाता है
हास्यास्पद लाचारी कि,
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का
आराधक मैं
भला शूद्र को पूजूँ कैसे?
इस झूठी कंगाल विवशता पर मेरा मन हँसता है
या कि लेखनी के अन्तर का छाला रिसता है।
और मुझे कहना पड़ता है
हम तोड़ रहे हैं वचन एक
जो बढ़े विमर्श, विचार, सोच के बाद
दिया था विश्व-नियन्ता को
और किसी ने नहीं
हमारे पुरखों ने।
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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