श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की पैंतीसवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की पैंतीसवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
चौराहे सूने हो सकते हैं
वे
पहले उदास हुए, फिर निराश
और अब करीब-करीब हताश।
उन्होंने खुद
पत्थरों से कुचल लिए हैं अपने ही वे हाथ
जो तने थे कभी
तुम्हारी हिमायत में।
जिस पर बनाया था
व्यवस्था ने एक अस्थायी तिल
उस अंगुली को काट फेंका है
लोगों ने खुद-ब-खुद।
जिन गलीचों पर तुम
मन्त्रणाएँ कर रहे हो
वे शीशे के बने हैं,
तुम्हारा नंगापन
निखार देते हैं वे नामुराद शीशे।
खून न थमा है, न जमा है
वह अनवरत प्रवाहित है
दूर कर लो अपना भ्रम।
चौराहे सूने हो सकते हैं
पर निर्जन नहीं हैं।
देहरी से दालान की दूरी
दम भर की होती है।
उत्तेजना और प्रकाश की गति में
ज्यादा फर्क नहीं होता।
भीड़ जब भाड़ बनती है,
तो ईंधन के पास
कोई तर्क नहीं होता।
-----
रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
-----
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.