बर्लिन से बब्बू को
दूसरा पत्र - पहला हिस्सा
रोस्तोक से
12-9-76
शाम 6 बजे
भारतीय समय रात्रि 10.30
प्रिय बब्बू,
प्रसन्न रहो,
इस आशा से यह लम्बा पत्र फिर लिख रहा हूँ कि मेरा पूर्व पत्र मिल गया होगा और लगता होगा कि पत्र अधूरा है। मैं नहीं जानता कि तुम लोग मेरे उस पत्र का कैसा और क्या उपयोग करने का सोच रहे होगे। खैर,
वह पत्र लिखते-लिखते एक दिलचस्प घटना घट गई। श्री के. एन. सेठ जिनका कि आने की हम लोग उम्मीद छोड़ बैठे थे वे अनायास आ गये। दिल्ली से मास्को और फिर मास्को से बर्लिन, उनकी अकेले की यात्रा कम दिलचस्प नहीं रही। पर वे स्वयम् एक जागरुक पत्रकार हैं सो उनकी यात्रा पर वे खुद लिखेंगे। ज्यों ही होटल में हम लोगों को पता चला कि श्री सेठ दिल्ली से रोस्तोक पहुँच गये हैं, हर कमरे से प्रतिनिधि भाग कर उनके कमरे में जा पहुँचे। उन्हें घेर लिया। भारत के ताजा समाचार वे ही हमें दे सकते थे। वे हमारे तीन-चार दिन बाद भारत से चले थे। यद्यपि बी. बी. सी. का समाचार बुलेटिन हमारे लोग सुन लेते थे तो भी मात्र एक दिन पूर्व के समाचार उनसे ही मिलने की प्रामाणिक उम्मीद थी। पर श्री सेठ ने हम सबको निराश किया। वे न तो समाचार लाये न पुराने समाचार-पत्र ही। भारत में सब कुछ यथावत है। कोई विशेष गर्म हवा उधर नहीं चली। निराशा के साथ ही साथ तसल्ली भी मिली। यहाँ न तो हिन्दी अखबार आते हैं न अंग्रेजी। हाँ, लन्दन से निकलने वाला अंग्रेजी अखबार मार्निंग स्टार (Morning Star) जरूर आता है। पर वह मूलतः भारत विरोधी अखबार है। किसी की दिलचस्पी उसमें नहीं थी। मेरे पास तो केवल 5-9 से 11-9 तक का ‘धर्मयुग’ है जिसे मैं पचासों बार तरह-तरह से पढ़ चुका हूँ।
अंग्रेजी को किसी तरह का प्रोत्साहन यह देश नहीं देता है। अंग्रेजी सारे यूरोप में अपाहिज और अमान्य भाषा है। यदि दुभाषिया नहीं हो तो यहाँ अंग्रेजी किसी काम नहीं आये। अपनी भाषा जर्मन के लिये इस देश की आसक्ति हम हिन्दी वालों के लिये ईर्ष्या की बात है। मैंने कहा न! अंग्रेजी यहाँ पहले पंगु है फिर अनाथ।
जर्मनी में भिखारी?
श्री सेठ के आगमन से भी अधिक दिलचस्प रही दूसरी घटना। इस घटना ने हमें मनुष्य की कमजोरियों का आश्वासन दिलवा दिया। हुआ यह कि बड़ी सुबह कोई 7.30 या 8 बजे मैं होटल के ठीक बाहर अपनी डाक डालने के लिये पोस्ट के डिब्बे का ढक्कन टटोल रहा था कि एक जर्मन भिखारी मेरे सामने खड़ा हो गया। पाँच फिनिक्स का सिक्का दिखा-दिखा कर वह हाथ फैला रहा था। यह समूचे संसार के लिये एक अविश्वस्त समाचार है पर है बिलकुल
मूलचन्दजी गुप्ता और दादा
सच। मैंने तत्काल श्री मूलचन्द गुप्ता को बुलाकर उस भिखारी से उनकी भेंट करवा दी। हमने किसी ने उसे भेंट या भीख नहीं दी पर मेरा मन करता है हो न हो वह भिखारी इस देश का निवासी नहीं रहा होगा। पर फिर बाहरी आदमी
यहाँ क्यों कर भीख माँगेगा? आनन्द तब आया जब वह मुझसे पाँच फिनिक्स के लिये आजिजी करने लगा। मुझे अपने बीते दिन याद गये। मेरी हँसी भी चल गई। एक भिखारी से दूसरा भिखारी माँग रहा है! वह भी जी. डी. आर. जैसे समाजवादी देश में! वाह रे भाग्य? भीख से यहाँ भी पीछा नहीं छूटा। अपने जैसे हर जगह भगवान मिला देता है। पर उस समय सारे होटल में कुहराम मच गया जब हमारे व्यवस्थापकों को इस बात का पता चला। किस बुरी तरह उस भिखारी की ढूँढ मची कि मैं कह नहीं सकता। ईश्वर जाने उसका क्या भविष्य हुआ होगा। राम जाने वह कहाँ होगा। पर हम लोगों से क्षमा माँगते-माँगते हमारे व्यवस्थाकों की जबान घिस गई है।
कल दोपहर के भोजन के बाद हम लोग रोस्तोक काउण्टी छोड़ देंगे। दो रातें रास्ते के किसी मोटल में बिताकर 15-9 की सुबह बर्लिन पहुँच जायेंगे। पूरे आठ दिन इस प्रान्तर में बहुत अध्ययन मनन के काटे। खाने वालों ने खूब खाया। मैंने खूब लिखा पर सबसे ज्यादह बाजी मार ले गये पीने वाले। रूसी शराब, जिसे वोदका कहते हैं, यारों ने खूब पी। यहाँ की स्थानीय शराब कोनिया भी पट्ठों ने खूूब गटकी। कोनिया बमुकाबले वोदका कुछ कम नशीली होती है। पर नशा आखिर नशा तो है ही।
अब पता चला कि हमारी यह यात्रा जून 1976 में क्यों नहीं हो पाई? चक्कर यह चला कि एक साथ एक होटल में कहीं भी 25 बिस्तर या 16 कमरे नहीं मिल सके। मार्च में हम लोगों के लिये कमरों की तलाश शुरु हुई। कमरे मिल पाये सितम्बर के लिए। वे भी आठ दिन एक जगह और आठ दिन दूसरी जगह। 6 माह पूर्व कमरों का आरक्षण यहाँ सामान्य बात है। जिस समय मनासा में यह समाचार आया कि हमारी यात्रा जून के बदले सितम्बर में होगी तो तुझे पता होगा, मेरे ईर्ष्यालु फूहड़ आलोचकों ने कितनी फब्तियाँ कसी थीं। वे लोग कितना कूदे थे। राम जाने यह सब पढ़कर उन पर क्या बीत रही होगी क्योंकि मैं यह सारी राम कहानी उसी देश से लिख रहा हूँ। इतना ही नहीं इस देश की यात्रा मारिशस से और जुड़ गई। याने एक के बदले दो देश जाना पड़ा। ईश्वर कितना सटीक उत्तर देता है!
दूसरा पत्र: दूसरा हिस्सा निरन्तर
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