ए! हुण! कमलापति फिनिश......

दादा श्री बालकवि बैरागी के निधन के बाद शोक प्रकट
करने के लिए आनेवालों का ताँता सुबह से रात तक लगा रहता था। दिन में देहातों के लोग अधिक आते तो सूरज ढलने के बाद स्थानीय लोग। इनमें से कुछ प्रतिदिन आते। ऐसे आनेवालों में हम परिजनों के बाल सखा, कक्षापाठी, पारिवारिक स्तर पर अन्तरंग लोग देर रात तक बैठते। तब, शोक के बीच हास-परिहास भी जगह बना लेता था।

ऐसा ही एक प्रसंग गोर्की, मेरे छोटे भतीजे ने सुनाया। उसने अपनी ओर से आगे रहकर नहीं, रामप्रसाद कसेरा से गपियाते हुए अचानक ही सुनाया।

मुझे नहीं पता कि रामप्रसाद कसेरा और गोर्की सहपाठी हैं या नहीं। लेकिन यह पता है कि दोनों अच्छे मित्र हैं। गोर्की जब भी मनासा आता है तो रामप्रसाद उससे यत्नपूर्वक मिलता है। 

घटना के समय रामप्रसाद मनासा ब्लॉक काँग्रेसाध्यक्ष था। तब हमारा मकान कस्बे के बाहर, खेत पर नहीं, कस्बे में ही, पुरबिया गली, भाटखेड़ी रास्ते पर हुआ करता था। वहाँ, रास्ते आते-जाते आसानी से आया जा सकता था। ब्लॉक काँग्रेसाध्यक्ष होने के कारण रामप्रसाद प्रायः ही घर पर आता रहता था।

एक दिन दादा को अपराह्न तीन बजे की बस से बाहर जाना था। अचानक ही खबर आई कि काँग्रेस नेता, श्री कमलापति त्रिपाठी का निधन हो गया है। दादा ने जाने से पहले शोक सभा करने का विचार किया और रामप्रसाद से कहा - ‘मुझे तीन बजे की बस से जाना है। उससे पहले शोक सभा हो सकती है?’ रामप्रसाद ने कहा - ‘क्यों नहीं हो सकती? हो जाएगी।’ तय हुआ कि दोपहर ढाई बजे, अन्नपूर्णा मन्दिर पर शोक सभा होगी।

तब आज जैसी मोबाइल और वाट्स एप की सुविधा तो थी नहीं। लेण्ड लाइन फोन भी बहुत कम थे। एक-एक के पास जाकर खबर करनी पड़ती थी। वक्त कम था और काम बड़ा। सो, फैसला होते ही रामप्रसाद, हमारे घर से ही चल पड़ा, लोगों को खबर करने के लिए। अपने स्कूटर पर।

कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को खबर करना किसी चुनौती से कम नहीं था। रामप्रसाद ने अपना तरीका निकाला। दुकान के सामने, एंजिन बन्द किए बिना स्कूटर रोका। जब तक दुकान में बैठा कार्यकर्ता रामप्रसाद की ओर न देख ले तक तक रामप्रसाद बराबर हार्न बजाए। कार्यकर्ता की नजर पड़ते ही रामप्रसाद ने, सड़क पर खड़े-खड़े, खुले गले से सूत्र-सन्देश की हाँक लगाई - ‘ए! हुण। कमलापति फिनिश। दादा ने क्यो। अन्नपूर्णा। ढाई वजाँ।’ याने ‘ए! सुन! कमलापतिजी का निधन हो गया है। दादा ने कहा है कि अन्नपूर्णा मन्दिर पर ढाई बजे शोक सभा रखी है। आना है।’ कह कर, सुननेवाले की प्रतिक्रिया से बेपरवाह रामप्रसाद यह जा, वह जा।

अधिकांश लोगों ने रामप्रसाद की इस सूचना-शैली पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ ‘जूने-पुराने’ लोगों को अच्छा नहीं लगा - “ये कौन सा तरीका है शोक सभा की खबर देने का। मरनेवाले को तो वैसे भी आदर से याद किया जाता है। फिर कमलापतिजी तो अपने राष्ट्रीय नेता रहे हैं! उन्हें बिना मान-सम्मान के ‘कमलापति’ कहना? कम से कम ‘कमलापतिजी’ तो कहना चाहिए!” लेकिन वे कहते किससे? रामप्रसाद तो हवा का झोंका बना कस्बे में घूम रहा था। सो, ऐसे झुंझलाए तमाम ‘जूने-पुराने’ मन मसोस कर रह गए।

रामप्रसाद की मेहनत फलीभूत हुई और शोक सभा, कमलापतिजी की प्रतिष्ठा के अनुरूप  ‘ढंग-ढांग’ से सम्पन्न गई। सभा के बाद इन ‘जूने पुरानों’ ने दादा से शिकायत की - ‘पता है रामप्रसाद ने क्या किया? ये भी कोई तरीका है?’ दादा ने सबको आश्वस्त किया कि वे रामप्रसाद से पूछेंगे और उसे समझाएँगे। दादा चले गए। लेकिन बात आई-गई नहीं हुई।

अवसर मिलते ही दादा ने पूछा - ‘भई! रामप्रसाद! ये तुमने शोक सभा की खबर कैसे दी? ऐसा क्यों किया भई?’ हनुमान की तरह नतमस्तक, विनयावनत मुद्रा में रामप्रसाद ने जवाब दिया - ‘अशो हे दादा! के आपने तीन वजाँ जाणो थो। अबे मूँ एक-एक की दुकान पर स्कूटर बन्द करी ने, सड़क पर ऊबो करीने, दुकान में जईने पूरी वात हमजातो। केतो के भई आपणा कमलापतिजी त्रिपाठी मरी ग्या। वणा की शोक सभा हे। ढाई वजाँ। थने आण्ो हे। ने ऊ पूछी लेतो के ई कमलापति कूण हे? तो वणीने पूरी वात हमजाणी पड़ती। अणी तराँ ती खबर करतो दादा! तो तीन तो यूँ ईज वजी जाती ने तीन मनक नी पोंचता सभा में! अबे आप ई वताओ! अशो नी करतो तो कई करतो?’ (ऐसा है दादा कि आपको तीन बजे जाना था। यदि मैं एक-एक दुकान पर स्कूटर बन्द कर, सड़क पर खड़ा कर, दुकान में जाकर पूरी बात समझाता। कहता कि अपने कमलापतिजी त्रिपाठी का स्वर्गवास हो गया है। ढाई बजे उनकी शोक सभा है। तुझे आना है। यदि वह पूछ लेता कि कमलापतिजी कौन हैं? तो उसे पूरी बात समझानी पड़ती। यदि इस तरह खबर करता न दादा! तो, तीन तो यूँ ही बज जाती और शोक सभा में तीन लोग नहीं पहुँचते। अब आप ही बताओ! मैं ऐसा न करता तो क्या करता?)

रामप्रसाद के लाजवाब जवाब ने दादा को बेजवाब कर दिया। वे मुस्कुरा कर रह गए - ‘ठीक किया रामप्रसाद।’ 

दादा की प्रतिक्रिया जानकर रामप्रसाद  खुश हो गया और जाने की अनुमति माँगी - ‘तो! दादा! म्हारे खिलाफ कम्पलेण्ट फिनिश? मूँ जऊँ?’ (तो! दादा! मेरे विरुद्ध शिकायत समाप्त? मैं जाऊँ?)

दादा की हँसी चल गई। हँसते-हँसते ही बोले - ‘हाँ। फिनिश। तू जा।’ 

और रामप्रसाद पूर्वानुसार ही, हनुमान की तरह, विनयावनत मुद्रा में प्रस्थान कर गया।
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2 comments:

  1. मनासा की मालवी पढ़ कर बहुत अच्छा लगता है।रामपुरा की यादें तजा हो जाती है।

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  2. बहुत बढ़िया यादे

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