वे दोनों तनिक सहमते हुए आए थे। बोले - ‘आप से थोड़ी बात करनी है। लेकिन डर लग रहा है। कहीं आप बात बात सबके सामने नहीं कर दो।’ मुझे हँसी आ गई। पूछा - ‘बात मेरे काम की है या तुम्हारे काम की?’ सहमी आवाज में एक बोला - ‘बात है तो हमारे ही काम की।’ मैंने कहा - ‘तो फिर रहने दो। तुम्हारे काम की तुम जानो।’ दोनों सकपका गए। दूसरा बोला - ‘वो ऐसा है कि है तो हमारे काम की लेकिन थोड़ी-थोड़ी आपके काम की भी है।’ मैंने कहा - ‘तो फिर मुझे उतनी ही बता दो जो मेरे काम की है।’ जवाब आया - ‘देखो सा’ब! हम पहले ही डरे हुए हैं। ऐसी बातें करके आप हमें और मत डराओ।’ अब मैं जोर से हँसा - ‘यार! तुम लोग साफ-साफ बात करो। लेकिन यदि तुम केवल मुझे कहने या बताने आए हो तो रहने दो। इसके बाद भी मुझे बताओगे तो मैं वादा नहीं करता कि तुम्हारी बात अपने तक ही रखूँगा।’
दोनों ने आँखों ही आँखों में बात की, फैसला लिया। दूसरा बोला - ‘देखो सा’ब! आए तो आपको सुनाने ही हैं। सुना कर ही जाएँगे। आपको जो करना हो वो कर लेना। लेकिन आपको हमारे बच्चों की सौगन्ध, आप हमारा नाम किसी को मत बताना।’ मानो उनके खानदान पर अहसान कर रहा होऊँ, कुछ इस तरह कहा - ‘हाँ। ये वादा मैं करता हूँ। तुम्हारा नाम नहीं बताऊँगा लेकिन तुम्हारा नाम, पता और मोबाइल नम्बर अपने पास लिख कर जरूर रखूँगा। सुनकर दोनों के हाथ-पाँव फूल गए। घबरा कर पूछा - ‘क्यों? वो किस लिए?’ जोर से हँसते हुए मैंने कहा - ‘डरो मत यार! यदि तुम्हारी बात में काम का मसाला हुआ और मुझे कुछ पूछताछ करनी पड़ी तो तुमसे फोन करके पूछ लूँगा। इसलिए।’ दोनों की घबराहट कम हुई। मैंने अर्द्धांगिनीजी को आवाज लगा कर उनके लिए पानी और चाय के लिए कहा और उनसे बोला - ‘अब फटाफट अपने काम की बात मुझे बता दो। जरा साफ-साफ बताना। खुलकर।’
बिना किसी क्रम के, टुकड़ों-टुकड़ों में, एक दूसरे की बात पूरी करते हुए उन्होंने जो बताया उसका सार था कि वे मेरा, 14 जून वाला, ‘बिच्छू पण्डित’ का लेख पढ़ कर आए थे। दोनों ही रतलाम की श्री सनातन धर्म सभा के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उनकी संस्था और महारुद्र यज्ञ समिति, प्रत्येक अधिक मास में, त्रिवेणी मेले में नौ दिवसीय ग्यारह कुण्डी यज्ञ कराती हैं। यज्ञ करानेवाले पण्डितों के व्यवहार से वे परेशान रहते हैं लेकिन कर कुछ नहीं पाते। ‘आपको तो एक बिच्छू पण्डित की बात मालूम हुई। लेकिन ये ग्यारह के ग्यारह बिच्छू पण्डित से कम नहीं हैं। हमें तो सा‘ब पूरे नौ दिन इन ग्यारह बिच्छू पण्डितों को झेलना पड़ता है।’
बात मेरी समझ में नहीं आई। मैंने तनिक झल्ला कर कहा - ‘मैंने पहले ही कहा है, साफ-साफ बात करो। मुझे घुमा फिरा कर बात करना पसन्द नहीं।’ मेरे तेवर देख दोनों असहज हो गए। एक बोला - “वो! सा’ब! ऐसा है कि व्यवस्था में राई बराबर भी कमी हो जाए तो ये पण्डित माथे आ जाते हैं। आँखें दिखाने लगते हैं। कहते हैं - ‘हम अपना काम छोड़ कर आते हैं। धरम का काम है। समिति से एक पाई भी नहीं लेते हैं। तुम्हें केवल व्यवस्था करनी है। तुमसे वो भी नहीं होती? फिर तुम्हारी समिति किस काम की? फोकट में वाहवाही लूटते हो।’ मैंने पूछा - ‘क्या सच्ची में समिति उन्हें दक्षिणा नहीं देती?’ वे बोले - ‘हाँ सा’ब। वो लोग समिति से कोई दक्षिणा नहीं लेते।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर झगड़ा किस बात का? सही तो कहते हैं वो! तुम लोगों को बुरा क्यों लगता है?’ वे मानो मेरे इसी सवाल की राह देख रहे थे। फौरन बोले - ‘येई तो वो बात है सा’ब जो बताने आए हैं। वो समिति से दक्षिणा नहीं लेते लेकिन हर एक पण्डित एक हजार रुपये रोज से कम नहीं उठाता। फिर भी हमें आँखें दिखाते हैं। हम कुछ भी कहते हैं तो वही, ‘हम अपना काम छोड़ कर फोकट में धरम का काम करने आते हैं।’ की बात सुनाते हैं।”
उनकी बात मेरे सर के ऊपर से निकल गई। मेरी शकल देख कर एक बोला - ’वो ऐसा है सा’ब कि मेले में दूर-दूर से तो धार्मिक-दानी लोग आते ही हैं, आसपास के गाँवों के लोग टुल्लर के टुल्लर आते हैं। ये आनेवाले यज्ञ को तो भेंट चढ़ाते ही हैं, अपनी-अपनी हैसियत से यज्ञ करानेवाले सारे पण्डितों को भी दान-दक्षिणा देते हैं। सौ-सौ रुपये देनेवाले तो दिन में पाँच-सात आ ही जाते हैं। इसके अलावा कभी कोई धोतियाँ दे जाता है तो कोई शालें दे जाता है। कभी कोई कुर्तों का कपड़ा दे जाता है। कभी मौसमी फलों की थैलियाँ तो कभी मिठाई के डब्बे। एक साल एक आदमी चाँदी के सिक्के दे गया था। इन पण्डितों को ये चीजें और दक्षिणा नजर नहीं आतीं। हमने एक बार कहा भी कि यदि फोकट में ही धरम सेवा कर रहे हो तो ये दान-दक्षिणा भी मत लो। समिति को दे दो। हमने जैसे ही कहा तो वे गुर्रा कर लाल-लाल आँखें दिखाने लगे। कहने लगे कि यह समिति ने थोड़ी ही दिया है! यह तो श्रद्धालु भक्त दे जाते हैं। इसका समिति से क्या लेना-देना?’
दोनों की बातों से लग रहा था कि तकनीकी रूप से पण्डित सही थे और व्यावहारिक रूप से ये दोनों सही थे। लेकिन मैं फिर भी समझ नहीं पाया कि वे मुझसे क्या चाहते थे। मैंने अपनी उलझन बताई तो उन्होंने अपने वाद का मुद्दा पेश किया - ‘वो! ऐसा है सा’ब कि उन पण्डितों को हमें ही झेलना पड़ता है। वे हमारी टप्पल में टींचे मारते हैं। हमें इस तरह सुनाते हैं जैसे वे हमारे खानदान पर एहसान कर रहे हों। हम इनके तानों से आजीज आ गए सा’ब। हम इसीसे मुक्ति चाहते हैं।’ मुझे अचरज हुआ। कहा - ‘समितिवालों से क्यों नहीं कहते? उनसे कहो। वे जरूर कोई रास्ता निकालेंगे।’ जवाब आया - ‘समितिवाले तो सा’ब ऐन टेम पर ही आते हैं और हार-फूल करके चले जाते हैं। हम कहते हैं तो सुनते नहीं।’ उनकी आँखों से लग रहा था कि वे सच ही बोल रहे थे। मैंने कहा - ‘एक काम करो। इन पण्डितों को मिलनेवाले फायदे रतलाम के दस-बीस दूसरे पण्डितों को गिनवाओ और उनसे कहो कि अगली बार वे सबके सब समिति से कहें कि वे भी समिति से बिना किसी दान-दक्षिणा के धरम की सेवा करना चाहते हैं। इसके साथ ही साथ समितिवालों को भी बराबर वास्तविकता बताते रहना। मुझे लगता है कि यदि तुम ईमानदारी से मेहनत करोगे तो तुम्हारा काम हो जाएगा।’
दोनों खुश हो गए। एक बोला - ‘अरे सा’ब! ये बात हमारे दिमाग में क्यों नहीं आई। आपके यहाँ से निकलते ही हम तो इसी काम पर लग जाएँगे। पण्डित बदलें या न बदलें लेकिन इन ग्यारह बिच्छू पण्डितों की बोलती जरूर बन्द हो जाएगी।’
इस बीच चाय आ ही चुकी थी और वे पी ही चुके थे। वे जाने लगे तो मैंने कहा -‘लेकिन अगली बार जब यज्ञ हो तो मुझे बताना जरूर कि क्या हुआ। नहीं बताओगे तो ये सारी बातें तुम्हारा नाम लेकर सबको बता दूँगा।’
इस बार वे डरे नहीं। जोर से हँसे और कोहनियों तक हाथ जोड़, कर चले गए।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-07-2018) को "कामी और कुसन्त" (चर्चा अंक-3021) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत-बहुत धन्यवाद। आभारी हूँ।
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