या तो मेरे देस पधारो
या फिर अपने देस बुलाओ
ना सन्देशे देते ही हो, ना सन्देशे लेते हो
ना मुझको बुलवाते हो और ना ही आने की कहते हो
क्या पाओगे पाहनपन में
पी, पल भर पाहुन बन जाओ
या तो मेरे देस पधारो...
मैं चाहूँ तो अगले पल ही, देस तुम्हारे आ सकती हूँ
पंख कटे हैं, पैर बँधे हैं, फिर भी मंजिल पा सकती हूँ
पर तुम भी मेरे मंगल की
मान-मनौती तो मनवाओ
या तो मेरे देस पधारो.....
आठ पहर प्रियतम मैं तेरा पंथ बुहारा करती हूँ
आस भरी आँखों से सूनी राह निहारा करती हूँ
या तो रथ की रास मरोड़ो
या मेरी डोली भिजवाओ
या तो मेरे देस पधारो.....
दुनिया से यदि डरते हो तो, में तरकीब बताती हूँ
तुम उतरो अट्टा से नीचे, मैं कुछ ऊपर आती हूँ
और क्षितिज के पार सलौने
सचमुच का संसार बसाओ
या तो मेरे देस पधारो.....
ना आना और ना बुलवाना, रीत कहाँ की है प्यारे?
जीना मुश्किल, मरना मुश्किल, ऐसी तो मत तड़पा रे!
पार लगाने आ न सको तो
नाव डुबाने ही आ जाओ
या तो मेरे देस.....
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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
निःशब्द,सलाम
ReplyDeleteइस कोरोना-काल में मनोदशा लगभग जड़वत् हो गई है। इसीलिए आपकी यह टिप्पणी इतने विलम्ब से देख पा रहा हूँ। कृपया अन्यथा न लें और क्षमा कर दें।
ReplyDeleteआप मुझ पर सतत् नजर बनाए रखते हैं। आभारी हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।