प्रतिदिन सौ-सौ गीत लिखे पर कागज रीते पड़े हुए
कठिन प्रश्न है इन गीतों से रीता पेट भरूँगा कैसे?
ये चपटे, चौकर, त्रिकोण कपासी टुकड़े कागज के
अर्द्ध नग्न ही रह जाते हैं कवि को नगन-भगन करके,
आँसू औ’ छालों में मैंने कितनी स्याही घोली है
फिर भी इनकी भूख-प्यास तो इक रीती मरु झोली है
शोषक स्याही-चूस अभी देख रहा टेड़ा-तिरछा
रक्तहीन इस अस्थि चर्म को उसकी भेंट करूँगा कैसे?
रीता पेट भरूँगा कैसे?
रत्नाकर से रत्न निकाले और हुआ जब बँटवारा
सबको कुछ तो प्राप्त हुआ ही अमृत या विष की धारा
अपना चाहा पाने वाले दैव-दैत्य सब साक्षी हैं
मेरू दण्ड और महाशेष के कर्ज अभी तक बाकी हैं
कवि के रतन लूटनेवाले देव! दानवों! बतलाओ
मेरू-शेष का वंशज मैं अब लम्बा हाथ करूँगा कैसे
रीता पेट भरूँगा कैसे?
गीत भला मैं खाऊँ कैसे, गीत भला ओढ़ूँ कैसे?
दो दानों के दीप-महल तक, गीतों पर दौड़ू कैसे?
मातम में मर जानेवालों, तुम तो सिर्फ बराती हो
ये हैं मेरे साथी तो ही, तुम भी मेरे साथी हो
जिस साथी को खून पिलाया, पाला, पोसा, बड़ा किया
एक गढ़ा भरने को उससे दूजी बात करूँगा कैसे?
रीता पेट भरूँगा कैसे?
तुम जैसे ही गोरे-काले, मुझको भी दिन-रात मिले हैं
देह मिली है तुम जैसी ही, ये देखो, दो हाथ मिले हैं,
पर, एक बार में एक काम ही इन हाथों से करवा लो
या तो दाने गिनवा लो या अपनी फिर पीर सँवरवा लो
अगर विषमता को न ओढ़ाई तुमने काली चूनरिया
बतलाओ मैं उस डायन की रीती माँग भरूँगा कैसे?
रीता पेट भरूँगा कैसे?
जिसने चोंच बनाई वह ही चुगा जुटाया करता है
मित्र पेट इन आशाओं से नहीं भराया करता है,
माना अपनी माँ के स्तन में दूघ नहीं रख आया था मैं
तो क्या केवल माँ के आँचल लिपट, लूटने आया था मैं?
केवल माँ के दूध तलक ही कवि को जीवित रखनेवालों
अपना जीवन जी न सका तो अपनी मौत मरूँगा कैसे?
रीता पेट भरूँगा कैसे
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
बहुत सुन्दर।
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श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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मित्रों पिछले तीन दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है।
खुुद को कमरे में कैद कर रखा है।
आशा है, अब आप पूर्ण स्वस्थ होंगे।
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