के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की पन्द्रहवीं कविता
मैं निर्धन हूँ इससे मेरे प्रियतम मुझको, मत ठुकराओ।
तन रक्खा, मन तुमको सौंपा, ठुकरा करके राज-दुवारे
अब मेरे जो कुछ हो, तुम हो, धन-कंचन के भण्डारे
मेरी निधियों को ठुकरा कर, मत ठोकर का मान बढ़ाओ
मैं निर्धन हूँ.....
अपनी दौलत दिखलाने में, झिझक मुझे कुछ होती है
केवल मेरी आँखें ही देखो, इनमें सच्चे मोती हैं
झूठे जग के बाजारों में तुम तो इनको मत झुठलाओ
मैं निर्धन हूँ.....
जिन चरणों पर मैंने मन के निर्धन फूल चढ़ाये हैं
बरबस नींदें बुलवा जिनको, सपनों से नहलाये हैं
उन भोले, कोमल चरणों को मत ठोकर का पाठ पढ़ाओ
मैं निर्धन हूँ.....
अब तो इस दुनियावाले भी, जोगन से कतराते हैं
और न जाने कैसे-कैसे, रोज बुलावे आते हैं
मन के मालिक, तन भी ले लो, अब तो मेरे धन कहलाओ
मैं निर्धन हूँ.....
ठुकराना ही है तो क्यों तुम अपने चरण दुखाते हो
निर्ममता की रीत पुरानी, क्यों नाहक दुहराते हो
में ही टकरा लूँगी सिर को, पल भर अपना रथ ठहराओ
मैं निर्धन हूँ.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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