के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की चौदहवीं कविता
तेरे देस भी छाये होंगे ये मेघा कजरारे
कल तक की परदेसिन पछुवा, मुसे लिपट गई आकर
स्वयं तृप्ति की साँस ले रही, मेरी प्यास जगा कर,
बिलखी-बिलखी बूँदें बरबस, बहक-बहक कर बरस गईं
मुझे छोड़ कर सारी बस्ती पुलक-पुलक कर हरस गई
सोच रहा हूँ तू भी बैठी होगी मन को मारे
मेरे देस भी छाये होंगे.....
मेरे गीतों के छप्पर में आ-आ कर अनजान बटोही
सुुखा रहे हैं भीगा तन-मन, कुछ विरही औ’ कुछ निर्मोही,
स्वार्थ सिद्ध होते ही उठकर चल देते हें ये अपकारी
धन्यवाद भी दे न सके हैं निर्धन को ये व्यापारी,
तेरा महल भी तकते होंगे ऐसे ही लोभी बनजारे।
मेरे देस भी छाये होंगे.....
लाख बार बिजली तड़पी पर एक-एक कण भीग गया है
प्रथम प्रणय का साखी पीपल, मुझे यहाँ से दीख गया है,
सब दिखता है लेकिन तेरा देस नहीं दिख पाता है
आँखों आगे श्याम बदरवा घड़ी-घड़ी घिर आता है
यही दर्द तुझको भी देते होंगे ये भीगे पखवारे।
मेरे देस भी छाये होंगे.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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