के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की तेरहवीं कविता
मुझे कहीं का नहीं रखेंगे, ये सपने बेशरम तुम्हारे
कल से इन्हें न आने देना, वर्ना द्वार बन्द कर दूँगा।
नाम तुम्हारा बतला कर ये, बिना बुलाये आ जाते हैं
मेरी नाबालिग निंदिया पर, जुलुम पचासों ढा जाते हैं
रोज-रोज आवारागर्दी, रोज-रोज ये खींचातानी
साफ बात है, नहीं चलेगी, कल से ये जबरन मेहमानी,
लूट लिया है इनने मेरे सपनों का अनमोल खजाना
अब तो मैं अपमान करूँगा, सब सत्कार बन्द कर दूँगा
सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा
कितनी आँखें दिखलाते हैं ये, करते हैं कितनी हेठी
जैसे मैं इनका खाता हूँ, या ब्याहेंगे मेरी बेटी
सीमा में सब बात ठीक है, पर ये सीमा तोड़ रहे हैं
इनकी शह से दुनिया वाले, रोज शगूफे छोड़ रहे हैं
मेरे दो आँसू की इनने कर दी, सागर भर बदनामी
गंगा तट पर अब मोती के सब बाजार बन्द कर दूँगा
सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा
इनका मेरा क्या रिश्ता है? क्यों इनकी गजलें गाऊँ?
क्यों तारीफ करूँ तारों की? क्यों नींदें नीलाम चढ़ाऊँ?
कसम तुम्हारी इनने मेरी साँसों से खिलवाड़ किया है
रातों को रामायण कर दीं, इनने तिल का ताड़ किया है,
तुमने शरमाना सीखा पर, इनको शरम नहीं सिखलाई
मेरे यौवन पर अब इनके, सब अधिकार बन्द कर दूँगा।
सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा
तुमसे मैंने प्यार किया है, क्या मतलब कुछ पाप किया है?
किस बूते पर इनने मेरा, घर-आँगन सब नाप लिया है?
नहीं, नहीं, यह क्या है आखिर, कैसे मेरी उम्र कटेगी?
तुम जो चाहो समझो लेकिन, इनकी-मेरी नहीं पटेगी
बहुत शराफत से कहता हूँ, अब इनको समझा लेना
वर्ना इन आवाराओं से मैं, सब व्यवहार बन्द कर दूँगा।
सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा
ये भी कोई बात हुई, तुम दिखो नहीं, ये रोज दिखें
मेरी चाँद धुली अभिलाषा, दो सपनों के मोल बिके,
जग ने एक लकीर खींच दी, तुमने भर ली ठण्ठी साँसें
मैं कैसे गिरवी रख दूँगा, सपनों के घर क्वाँरी प्यासें?
इन्हें न रोका, इन्हें न टोका, तो फिर लाख बुरा मानो तुम
इनके साथ तुम्हारी भी अब, हर मनुहार बन्द कर दूँगा।
सचमुच द्वार बन्द कर दूँगा
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए
बारहवीं कविता: ‘मादक नयनों की मादकता’ यहाँ पढ़िए
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