के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की सत्रहवीं कविता
चारों ओर तुम्हारी भाषा, चारों ओर तुम्हारी वाणी
चारों ओर तुम्हारा दर्शन, फिर भी सूनापन लगता है
कितना सूनापन लगता है.....
पनघट-पनघट बात तुम्हारी, हर घूँघट में नाम तुम्हारा
पीपल-पीपल तुम ही पाहुन, हर वंशीवट धाम तुम्हारा,
कण-कण पर पद चिह्न तुम्हारे, दिग्-दिगन्त रनिवास तुम्हारा
हर झोंके में गन्ध तुम्हारी, आँगन-आँगन रास तुम्हारा
फूलों से विकसित मेले में, मधु से भी मीठा कोलाहल
लेकिन चिर प्यासे ओठोें पर, फिर भी कुछ बन्धन लगता है।
कितना सूनापन लगता है.....
अपना द्वार ढूँढने में ही, क्या बतलाऊँ खूब हो गया
हानि नहीं कुछ अधिक हुई है, बस मेरा अस्तित्व खो गया,
मेरा अहं घुला करता है, पल-पल बिरहा में जलता है
मेरे बिना तुम्हारा यह, साम्राज्य कहो कैसे चलता है?
जनम-जनम से घूम रहा हूँ, लुटा-लुटा सा खोया-खोया
तन तीरथ में भटक रहा पर, मन फिर भी उन्मन लगता है।
कितना सूनापन लगता है.....
धड़कन-धड़कन गूँज तुम्हारी, साँस-साँस पदचाप तुम्हारा
किरन-किरन में दृष्टि तुम्हारी, फिर भी मुझको नहीं निहारा,
हर आँसू में स्पर्श तुम्हारा, लेकिन आँखें फिर भी मीरा
पल-पल मैली होती चादर, होता है बदनाम कबीरा
प्रेम नदी के ईरे-तीरे, ओ! मेरे गिरधर, गोपाला
सूखी हर वल्लरी लगती है, भूखा हर चन्दन लगता है।
कितना सूनापन लगता है.....
विश्वासों का हाथ पकड़ कर, निष्ठा फिरती द्वारे-द्वारे
कोई करता नहीं निहोरे, कहीं नहीं होती मनुहारें,
विरद तुम्हारा गाते-गाते, पूजी दिशा-दिशा की लाली
पूज लिये पाषाण करोड़ों, फिर भी अँचरा खाली-खाली,
तुम इतने व्यापक हो फिर भी, नहीं मिटी आकुल आतुरता
शपथ तुम्हारी निठुराई की, झूठा हर पूजन लगता है।
कितना सूनापन लगता है.....
कितने जनम यहाँ पर भटकूँ, इसका कब आभास मिलेगा?
कब तुम मेरी सुधियाँ लोगे, कब तुमको अवकाश मिलेगा?
कह दो अब किसके आँगन में, मेरा तपसी डेरा डाले?
देखो पाँव पिरोेने मेरे, पड़ गये छालों के भी छाले,
सारा द्वैत मिटाने पर भी, यह हालत है अन्तर्यामी
काया पर कुछ ऋण लगता है, हारा सा जीवन लगता है।
कितना सूनापन लगता है.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963

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