के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की उन्नीसवीं कविता
चाहे मुझको फाँसी दे लो, चाहे मेरा सरबस ले लो
मैं तो मधुरस का प्यासा हूँ, प्यास बुझाकर ही जाऊँगा।
सजग सभी शूलों को कर दो, पथ में बिछवा दो अंगारे
सम्भव हो तो बन्द करा दो, सभी ड्यौढ़ियाँ, सभी दुवारे
राहों में तूफान अड़ा दो
बाधाओं की फौज बढ़ा दो
मैं तो गति का अति यौवन हूँ, राह बना कर ही जाऊँगा
प्यास बुझा कर ही जाऊँगा.....
जितना तुमने कुचला मुझको, उतना और महान बना हूँ
जितना तुमने टाला मुझको, उतना और जवान बना हूँ
करते जाओ तुम मनमानी
देते जाओ और जवानी
मैं तो ओठों का हाकिम हूँ, शोर मचा कर ही जाऊँगा
प्यास बुझा कर ही जाऊँगा.....
मुझे न दो चन्दा की चाँदी, मुझे न दो सूरज का सोना
नहीं चाहिये मुझे फागुनी, मौसम का गुदगुदा बिछौना
तरह-तरह से मत ललचाओ
मत मेरे मन को बौराओ
मैं तो हठ का हठी हिया हूँ, हाट उठा कर ही जाऊँगा
प्यास बुझा कर ही जाऊँगा.....
सीमाओं के भीतर मैंने, अब तक सारी बात सम्हाली
मेरी प्यासों की लाशों पर, नहीं मनेगी अब दीवाली
देखूँ, अब तुम दीप जलाओ
पूजाओं के ढोंग रचाओ
मैं तो ज्वाला का जाया हूँ, पाँव पुजा कर ही जाऊँगा
प्यास बुझा कर ही जाऊँगा.....
जो भी कसर रखी हो तुमने, आज, अभी पूरी कर डालो
तुम्हें कसम है अन्यायों की, गागर को पूरी भर डालो
पनघट पर पहरे बैठा दो
बूँद-बूँद में जहर मिला दो
मैं तो नीलकण्ठ हूँ, विष को, गले लगा कर ही जाऊँगा
प्यास बुझा कर ही जाऊँगा.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
बहुत अच्छी कविता है,साधुवाद आपको
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
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