के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की इक्कीसवीं कविता
अब मैं गीत सुनाऊँगा
अपनी मस्ती गाऊँगा
रीती गागर लाया हूँ, पर रस छलका कर जाऊँगा
पड़ी-पड़ी ही रीत रही यह, पंचतत्व की गागरिया
ना जाने कब तक आयेगा, मेरा प्यासा साँवरिया,
छुप-छुप छलिया मार रहा है, कंकरी मेरी गगरी पर
लाख गगरिया करूँ निछावर, उसकी इक-इक कंकरी पर,
हर कंकरी शीश चढ़ाऊँगा
फिर उसको लौटाऊँगा
लख चौरासी भुगतूँगा पर, उसको नीर पिलाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
आने को तो इस मेले में, मुझ से लाखों आते हैं
क्रय करने को चन्द खिलौने, बाँध मुठरियाँ लाते हैं,
किन्तु खिलौने सब नश्वर हैं, जो भी मन को भायेंगे
अलख वैश्य को ठगनेवाले, स्वयं ठगाकर जायेंगे,
पर मैं नहीं ठगाऊँगा
आँसू नहीं बहाऊँगा
रोते-रोते आया हूँ पर, हँसते-हँसते जाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
कर्मक्षेत्र में मनु के पुत्रों, कब तक नीर बहाओगे?
पीर तुम्हारी मुझे ब्याह दो, वर्ना फिर पछताओगे,
बीच बजरिया, पीट ढिंढोरा, पड़ता है मुझको बकना
कन्या भले कुँवारी रखना, पीर कुँवारी मत रखना,
इसका वर कहलाऊँगा
इससे गीत जनाऊँगा
वादा करता हूँ सब बेटे, तुमको भेंट चढ़ाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
ये मन्दिर, ये मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे, ये मठ-गादी
ये राजे, ये राजदुलारे, ये नेता, ये आजादी,
कोई जलवाता है दीपक, कोई दीपक बुझवाता
कोई कंचन पुजवाता और कोई पत्थर पुजवाता,
यह पूजा ठुकराऊँगा
आँगन-आँगन जाऊँगा
सच्ची पूजा के अधिकारी, मानव को पुजवाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
इधर झोंपड़ी में होली है, उधर महल में दीवाली
इध अमावस्या पर जोबन, उधर चौदहवीं उजियाली
भँवरों का शोषण होता है, विधवा होती है डाली
हार पहन कर शोषण हँसता, नीर बहाता है माली
यह शोषण मिटवाऊँगा
क्रान्ति-पुरुष कहलवाऊँगा
हर मानव के तिमिरांचल में, लाखों चाँद उगाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
जब-जब कोई बिरहन कोयल, रह-रह बिरहा गाती है
जब बागों में कोमल कलिका, बिना खिले लुट जाती है,
जब शबनम का नरम करजवा, शूलों से बिंध जाता है
तब मेरा कवि बैरागी बन, जुल्मों से टकराता है
जुल्मों से टकराऊँगा
बगिया-बगिया जाऊँगा
पतझर के पग पथरा जाएँ, ऐसा फागुन लाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
जब कि अमन की अमराई में, जीवन चाह रहा जाना
रक्त सरोवर के तट पर, क्यों डेरा देता दीवाना,
साम्राज्यों की ये जठरानल, श्वेत-श्याम की नादानी
ये अपमानित चाँद धरा के, औ’ ये चन्दा विज्ञानी
(मैं) रक्त-कुण्ड पटवाऊँगा
सबको सत्य दिखाऊँगा
हर विज्ञानी, हर शासक को, आत्म ज्ञान सिखाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
मेरे वतन के लिए कफन मैं, बाँधे बैठा हूँ सर पर
निर्माणों का नया सन्देसा, पहुँचाता हूँ मैं घर-घर,
आजादी का चारण हूँ मैं, गीत उसी के गाऊँगा
समय-समय पर कायर नाहर, जन-गण को बरदाऊँगा
काम वतन के आऊँगा
साँस-साँस निछराऊँगा
लाल किले की दीवारों से, श्रद्धांजलियाँ पाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
बड़े-बड़े मनसूबे मेरे, और जरा सी जिन्दगानी
फटे पाल ये, टूटे चप्पू, मझधारा ये तूफानी,
किन्तु तुम्हारी दया-दुआएँ, तट को खींचे लाती हैं
मस्ती ही मस्ती में मेरी, बिगड़ी भी बन जाती है
सबका दरद बटाऊँगा
नर का धरम निबाहूँगा
मरघट जाने से पहले मैं, नारायण बन जाऊँगा
अब मैं गीत सुनाऊँगा.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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