फिर वह ही एकाकी

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की चौबीसवीं कविता




यह ले, मैं रह गया सलौनी! फिर वह ही एकाकी

घुट-घुट कर उठती अन्तर में, बातें वही व्यथा की

फिर वह ही एकाकी.....


बिछुड़ गये सब संगी-साथी

गये जनम के बैरी

पधरा गये बिरानी यादें

टीसें दे गये गहरी

ठण्डी साँसें, वही निसासें, फिर बाकी की बाकी

फिर वह ही एकाकी.....


हुमक उठी थीं चार लहरियाँ

महकी थी पुरवाई

लेकिन गुजर गई बाजू से

नहीं लौट कर आई

किससे निभी मिताई अब तक, पानी और हवा की

फिर वह ही एकाकी.....


पीड़ा बैठ गई पथरा कर

मन के अन्ध भवन में

सिसक रहा है सरल समर्पण

ऊजड़, निर्जन वन में

मान-मनौती मानी मन ने, जाने कहाँ-कहाँ की

फिर वह ही एकाकी.....


सभी ओर कुहरा ही कुहरा

राहें हुई अंधेरी

नहीं दिखाई पड़ती अब तो

झिलमिल गलियाँ तेरी

टूट गई है सारी हिम्मत, दुखिया दीप शिखा की

फिर वह ही एकाकी.....


मेरा भी क्या जीवन सजनी!

ना संगी, ना साथी

क्या मरघट तक जायेगा

ये दूल्हा बिना बराती

गाती रहे बिहाग उमरिया, क्या है रीत यहाँ की

फिर वह ही एकाकी.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963



पचीसवीं कविता: ‘मैंने जग की पीड़ा गाई’ यहाँ पढ़िए








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