के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की छत्तीसवीं कविता
नेह लगा कर तुमसे मैंने
जीवन को वीरान किया है
नाम तुम्हारा सुनकर केवल, मन को कुछ-कुछ हो आया
फिर तुम ही या तुम सा कोई, मेरे सपनों में मुसकाया
आज लगा है, उन सपनों ने
निंदिया का अपमान किया है
नेह लगा कर.....
सपनों में तुमने मुझको, जी भर-भर कर चूमा था
अपने ही कन्धों से पूछो, क्या कोई उन पर झूमा था
मत भूलो इस मधुदाता ने
आजीवन विषपान किया है
नेह लगा कर.....
सारा जग कहता था मुझको, तेरा प्रियतम जाली है
तेरे जीवन भर की निधियाँ, कल ही लुटनेवाली हैं
सचमुच तुमको इष्ट बना कर
पत्थर का सम्मान किया है
नेह लगा कर.....
तेरी अनजानी नगरी को, मैंने कितने दूत पठाये
निश्चय ही उन सबने तेरी, देहरिया पर अलख जगाये
निर्मम तूने पट न उघारे
और दूतों का प्राण लिया है
नेह लगा कर.....
लाज भुलाकर सारे जग की, अब तो मैं ही आई हूँ
फिर भी मुझसे पूछ रहे हो, क्या कोई भटका राही हूँ
क्यों बनते हो, रहने भी दो
मैंने सब कुछ जान लिया है
नेह लगा कर.....
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पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए
पैंतीसवीं कविता: ‘इतना दरद न दे’ यहाँ पढ़िए
सैंतीसवीं कविता: ‘ये मेरी अधमरी ऊँगलियाँ’ यहाँ पढ़िए
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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