मानव जीवन इस धरती पर,
बच्चों फिर कब पाओगे?
यह बेला यदि चूक गये तो,
आजीवन पछताओगे।
बच्चों फिर कब पाओगे?
यह बेला यदि चूक गये तो,
आजीवन पछताओगे।
अपनी गरिमा, अपने गौरव,
जिनको नहीं सुहाते हैं।
ऐसे पूत, कपूत कहा कर,
माँ की कोख लजाते हैं।
शक्तिवन्त ही इतिहासों में,
आदर, पूजा पाते हैं।
युग चारण भी वीरों के ही,
गीत युगों तक गाते हैं।
क्षमा-दया सब वीरों के ही,
आभूषण कहलाते हैं।
वीर पुरुष ही विश्व शान्ति के,
अनुगायक बन पाते हैं।
अमन अहिंसा की समता जो,
कायरता से करते हैं।
ऐसे बुजदिल सारे घर को,
एक साथ ले मरते हैं।
शान्ति हमेशा वीरों का ही,
करती है सिंगार सुनो!
इज्जत से जीवन चाहो तो,
सिंह-सुतों! अंगार बनो।
वीर जुझारे मरकर अपना,
नाम अमर कर जाते हैं।
कायर नर पैदा होने से,
पहले ही मर जाते हैं।
वीर प्रवर ही वसुन्धरा को,
भोग-भोग कर जीते हैं।
पौरुष के मीठे फल खाकर,
यश का अमृत पीते हैं।
जननी की इज्जत का सौदा,
करते जो बाजारों में।
उनके नाम लिखे जाते हैं,
जयचन्दों, गद्दारों में।
जैसे बिजली कौंध, घनों का,
मुख उजला कर देती है।
वैसे ही वीरों की वाणी,
जग का तम हर लेती है।
दो पल का जीवन हो लेकिन,
जीवन गौरवशाली हो।
ऊमर भर अंगारों जैसी,
पूरब वाली लाली हो।
अम्बर-भर काजल से बेहतर,
चुटकी-भर सिन्दूर बनो।
नई उमर के गम से बेहतर,
नई उमर के नूर बनो।
चुटकी-भर सिन्दूर बनो।
नई उमर के गम से बेहतर,
नई उमर के नूर बनो।
संघर्षों की दिव्य प्रभा से,
वंचित होकर जीना क्या?
यौवन पर लांछन लगवा कर,
अपमानों को पीना क्या?
बने बनाये राज्य पथों पर,
तरुणाई कब जाती है?
वो बीहड़ में पंथ बना कर,
युग को राह दिखाती है।
पीढ़ी, यदि पीढ़ी के पथ को,
साफ नहीं कर पायेगी।
कैसे संस्कृति शेष रहेगी?
संसृति ही मिट जायेगी।
अपने काँधों का बोझा यदि,
ठेठ नहीं पहुँचाओगे।
हर राही रोड़ा समझेगा,
सबकी ठोकर खाओगे।
जो मावस का रंग बदल दे,
वो सचमुच दीवाली है।
जो आतप का मान मसल दे,
वो सचमुच हरियाली है।
कण-कण पर रच जाय सदा को,
वो लोहू कहलाता है।
रक्त वही है जो सदियों पर,
अपनी छाप लगाता है।
रिपु-मर्दन, जीवन का दर्शन,
माने वह तो जीवन है।
और नहीं तो सब कूड़ा है,
सब मरघट का ईंधन है।
जीवट वाले ही जीवन को,
जीने के अधिकारी हैं।
वरना जीवन की हत्या है,
साँसों की लाचारी है।
बाधाओं से ब्याह रचाये,
उसको यौवन कहते हैं।
आँधी उसकी बाँदी बनती,
तूफाँ चाकर रहते हैं।
धारा के अनुकूल बहें वे,
मुर्दा शव कहलाते हैं।
चीर चलें जो हर धारा को,
वे परिवर्तन लाते हैं।
सब भौगोलिक रेखाओं को,
अपना सौरभ पार करे।
इतिहासों का हर इक पन्ना,
हमें हृदय से प्यार करे।
आँख-आँख से आँसू टपके,
जब चिर विदा हमारी हो।
देव लोक में जश्न मने औ’,
स्वागत की तैयारी हो।
नाम हमारा रहे दिलों में,
जाने और अजाने के।
जब भी अरथी उठे हमारी,
झण्डे झुकें जमाने के।
मानव मन के हर बन्धन पर,
पहली चोट लगायें हम।
मरघट जाने से पहले ही,
नारायण बन जायें हम।
काँटों के नाखून तोड़ कर,
अभय बनाएँ कलियों को।
जीवन ज्योति जगा कर जग-मग,
कर दें सूनी गलियों को।
अनदेखे अपवर्ग स्वर्ग पर,
मानव क्योंकर ललचाये?
ऐसे हों शुभ काम हमारे,
स्वर्ग यहीं पर बस जाये।
हिंसा औ’ बर्बरता को ही,
शौर्य न कोई मनवाये।
अपनी सीमा में रह कर ही,
मानव, मानव कहलाये।
विश्वासों का वैभव बरसे,
आस्था के आकाशों से।
ऊषा का स्वागत हो हर दिन,
कुंकुम और बताशों से।
जुल्म, जोर और अन्यायों का,
उत्तर देने ताकत से।
कोटि केसरी नित उठते हैं,
इसी भरत के भारत से।
उसी देश के प्यारे बच्चों!
तुम भी लाल कहाते हो।
साबित कर दो तुम धरती का,
भार हटाने आते हो।
माँ के मन को समझ गये तो,
नाम अमर कर जाओगे।
यह बेला यदि चूक गये तो,
आजीवन पछताओगे।
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भावी रक्षक देश के - भूमिका और सामान्य जानकारियाँ यहाँ पढ़िए
भावी रक्षक देश के - दूसरा बाल-गीत ‘सहगान’ यहाँ पढ़िए
भावी रक्षक देश के (कविता)
रचनाकार - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली
मुद्रक - शिक्षा भारती प्रेस, शाहदरा, दिल्ली
मूल्य - एक रुपया पचास पैसे
पहला संस्करण 1972
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
रचनाकार - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली
मुद्रक - शिक्षा भारती प्रेस, शाहदरा, दिल्ली
मूल्य - एक रुपया पचास पैसे
पहला संस्करण 1972
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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