‘चटक म्‍हारा चम्‍पा’ - भूमिका, समर्पण और संग्रह के ब्यौरे



संग्रह के ब्यौरे 

चटक म्हारा चम्पा (मालवी कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज प्रकाशन, 4 हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन
मूल्य - 20 रुपये
चित्रांकन - डॉ. विष्णु भटनागर
प्रकाशन वर्ष - 1983
कॉपी राइट - बालकवि बैरागी
मुद्रक - विद्या ट्रेडर्स, उज्जैन

-----


समर्पण
दादा श्री नरेन्द्र सिंह तोमर
को सादर सविनय समर्पित

-----

छन्द
                                    म्हारी आँखाँ का आँसू ती, उफणी री है जलझारी
                                    म्हारा सपना की सेजाँ पर, बरसीग्यो सावन भारी।
                                    म्हारा ने म्हारा हिवड़ा का हिवड़ा-जिवड़ा मसरी रे
                                    म्हारा छाला को गंगाजल देईरी सबने पणिहारी।
-----

भूमिका

देसिल बअना सब जन मिट्ठा

शब्द हमारी वाणी के वाहक हैं, वहीं मानव हृदय की अपार भाव-सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा और राजदूत भी हैं।  व्याकरण शब्दों को अनुशासन में बाँधने का प्रयास अवश्य करता है किन्तु शब्दों की स्वच्छन्द प्रकृति एक सीमित अर्थ-सत्ता के बन्धन को स्वीकारने को तैयार नहीं होती। अनेक लोकभाषा और बोलियों के शब्दों में विभिन्न भावलहरियों एवं मनस्थितियों की ऐसी झाँकी देखने को मिलती है, जो किसी शब्दकोश की रूढ़ और निर्धारित परम्परा से एकदम

भिन्न होती है। एक कुशल शब्द-शिल्पी, कवि की काव्य-भाषा के सन्दर्भ में तो उक्त धारणा को बल मिलेगा।

बालकवि बैरागी के इस काव्य-संकलन की भाषा मालवी है। मालवी पर भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से काफी लिखा जा चुका है। मालवा की उत्पत्ति एवं स्वरूप् पर यहाँ विस्तृत चर्चा करना अनावश्यक है, केवल कवि की भाषा विषयक मान्यताओं का विवेचन तथा उनकी काव्य-भाषा मालवी पर विचार करना ही वांछनीय है। “मालवी” के विषय में कवि के अपने विचार हैं- (1) वैसे भी मालवी बोली के निर्माण में छः भाषाओं का योगदान माना जाता है। इसमें राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी, मराठी, पंजाबी और उर्दू के शब्द आपको आसानी से मिल जायेंगे। मेरी मालवी को आप “मन्दसौरी मालवी” भी कह सकते हैं। यह मालवी का एक उपभेद हुआ। रतलाम की तरफ मालवी की मुख्य धारा का आँचल इसका सिर-पैर रहा है ।

उक्त दोनों प्रकार की भ्रान्तियों पर भी पर्याप्त विचार हुआ है । स्थान-विशेष एवं जातियों को लेकर मालव जैसे विस्तुत एवं विभिन्न संस्कृतियांे से युक्त प्रदेश में भाषा के अनेक भेद और उपभेद माने जा सकते हैं। ग्राम और नगर, स्त्री और पुरुष, शिक्षित और अशिक्षित की बोली में कुछ भेद या अन्तर तो मिल जाता है किन्तु एक सीमित क्षेत्र में बसने वाली विभिन्न जातियों के आधार पर बोली के अनेक भेदोपभेदों की कल्पना कर लेने में न तो कोई तथ्य है और न भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उनका सबल आधार ही है ।

डॉ. श्याम परमार ने मन्दसौ, रतलामी आदि स्थानों के नाम पर मालवी के भेदों में ‘मन्दसौर’, ‘रतलामी’ आदि  नामकरण किये हैं। वस्तुतः रतलाम और मन्दसौर क्षेत्र की बोली में कोई अन्तर नहीं है। मन्दसौर जिले के अन्तर्गत सौंधवाड़ का कुछ क्षेत्र सम्मिलित हैं। मन्दसौर जिले के पूर्वी क्षेत्र की ग्रामीण जनता की बोली

की दृष्टि से मन्‍दसौर की बोली और सौंधवाड़ी में भी पर्याप्त समानता है। सौंधवाड़ी मालवी का एक प्रमुख उपभेद है। बालकवि की मालवी भाषा को ‘रजवाड़ी’ के अन्तर्गत माना जायेगा। हाँ, यदि उनकी भाषा को हम ‘रांगड़ी’ कहें तो वे आपत्ति

कर सकते हैं। स्वभाव और संस्कार से वे ने तो रांगड़ हैं और न ही उनकी भाषा रांगड़ी। भले ही प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉ. गियर्सन ने रजवाड़ी या रांगड़ी कहकर जन-प्रवाह से बचने की चेष्टा की हो। 

काव्य लेखन में भावों की पकड़ के साथ, उनको प्रकट करने की कला का सर्वाधिक महत्व होता है। बालकवि बैरागी इस मामले में बेजोड़ हैं। शब्द चयन में उनकी भालवी का सौन्दर्य और भाव-बोध की कला को स्पष्ट देखा जा सका है--


‘आम्बा लगईग्यो ने हाँठा उगईग्यो
काँटा का नखल्या तोड़ीग्यो
भूखा ने धाणी गूँगा ने वाणी
देह ने हठीलो पोढ़ी ग्यो।’


हार्‌या  ने हिम्मत’ शीर्षक कविता का अंश है - आम के वृक्ष को जिसने लगाया, गन्ने को जिसने उगाया, काँटों के नखों को जिसने तोड़ा, जिसने भूखों को भोजन और गूँगे लोगों को वाणी दी। निष्ठा और आग्रहपूर्वक ऐसे काम करने वाला व्यक्ति अनन्त की गोद में सो गया। यह जवाहरलालजी की मृत्यु पर प्रकट की गई भावाभिव्यक्ति है ।

सौन्दर्य से अभिभूत होने के लिए - 

‘नैण वणी का घणा हत्यारा’

आनन्दभाव की अतिशयता को प्रकट करने के लिये - 

‘आँगणा में म्हारे रोज वँटे रे पतासाँ’

‘दुःख परायो जाणी लेणो मोटी बात है’


उपेक्षा भाव के लिये -

‘होकड़ली म्हारी घणी नखरारी ;

नकटी, नसेड़ी जावे रे उधारी।’

जैसी उक्तियाँ उल्लेखनीय हैं । 


इस संग्रह में मालवी कविताओं और गीतों के साथ ही गीतांजलि के दो गीत, पुर्तगाली कविता ‘झील’ और अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि जान कीट्स की कविता हृदयहीन रूपसी’ जैसी रचनाओं को मालवी में अनुवाद प्रस्तुत करना विशेष उल्लेखनीय है। बैरागी की कविता लोकधुनों और लोकगीतों से प्रभावित है। यह उनके पिता और भजन मण्डलियों की देन है।

वस्तुतः बैरागी भूमि और जनजीवन का कवि है। जननी और जन्मभूमि से उसे लगाव है। विषय चयन में भी उसकी अपनी विशेषता है।

‘चटक म्हारा चम्पा’, ‘पनिहारी’, ‘नणदल’, ‘कामणगारा की याद’, ‘लेवा पधार्‌या’ जैसी रचनाएँ सामान्य जीवन की प्रवृत्ति को प्रकट करते हुए भी उद्दाम श्रृंगार की भावना से पूर्ण हैं। देश भक्ति की भावना के लिये ‘खादी की चुनरी’, ‘लखारा’, ‘हार्या ने हिम्मत’ जैसी रचनाओं को नहीं भुला सकते। ‘बेटी की बिदा’ जैसी कविताएँ कठोर हृदय व्यक्ति को भी रुलाने के लिये पर्याप्त हैं। श्रृंगार-वीर-करुण भाव को व्यक्त करने के लिये बैरागी ने अपनी अभिव्यक्ति को साध लिया है, यहीं उसका भाषा की शक्ति और प्रभाव भी बढ़ जाता है। उसके मंचजयी होने का यही कारण है। मैं उसे ‘श्रृंगार और अंगार’ का बेजोड़ कवि मानता हूँ। बालकवि की मालवी कविताओं का यह पहला संग्रह प्रकाशित हो रहा है। मझे बड़ी प्रसन्नता है

और कवि की तरह मैं असन्तुष्ट हूँ कि भूमिका ‘मालवी’ में नहीं लिख सका।


डॉ. चिन्तामणि उपाध्याय
आजाद नगर, उज्जैन
गणतन्त्र दिवस 1983

-----

  


‘चटक म्हारा चम्पा’ की पहली कविता ‘सरस्वती वन्दना’ यहाँ पढ़िए


‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी। 

‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  





यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।


 


 


 


   

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  

 

 

 

  

 


No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.