यह संग्रह, राष्ट्रकवि रामधरी सिंह दिनकर को समर्पित किया गया है।
वंशज का वक्तव्य: दिनकर के प्रति
क्या कहा कि दिनकर डूब गया
दक्षिण के दूर दिशांचल में?
क्या कहा कि गंगा समा गई
रामेश्वर के तीरथ जल में?
दक्षिण के दूर दिशांचल में?
क्या कहा कि गंगा समा गई
रामेश्वर के तीरथ जल में?
क्या कहा कि नगपति नमित हुआ
तिरुपति के धनी पहाड़ों पर?
क्या कहा कि उत्तर ठिठक गया
दक्षिण के ढोल नगाड़ों पर?
वह दिव्य भाल, उन्नय ललाट
दिपता था जिस पर सूर्य बिन्दु।
वह धवल वेश, वह स्कन्ध वस्त्र
लिपटा था जिसमें अमल इन्दु।
सुग्रीव शीश, वे वृषभ स्कन्ध
वह चट्टानों-सा वृक्ष प्रान्त।
वह चलता फिरता हवन कुण्ड
वह हिन्दी का अद्भुत निशान्त।
वे रक्त. रचे जलते लोचन
वह भैरव स्वर, वह महाघोष।
वे प्रबल प्रकम्पित पुष्ट होठ
वह अपनी वय का मुखर रोष।
वह धधक-धधक सा पदाघात
वह दिग् दिगन्त का सिंहनाद।
वह लावे का जीवित प्रमाण
वह पौरुष का सम्पूर्ण स्वाद।
वह आर्य रक्त का युद्धगीत
वह बड़वानल का छन्द पूत।
वह दावानल का रूपान्तर
वह महामन्यु का रक्तदूत।
वह तप्त रुधिर का भाग्यलेख
वह वह्नि-वलय पावक प्रपात।
वह नीलकण्ठ का आप्त रोष
वह पुण्य-प्रलय का चक्रवात।
वह रणमन्त्रों का जन्म-लग्न
वह प्रगति काल का शिलान्यास।
वह आह्वानों का महाकाव्य
वह रवि, शशि दोनों का प्रकाश।
निर्धूम अनल का मणि-किरीट
वह परशुराम का कटु कुठार।
वह संकल्पों का युग चारण
वह मसिमय असि का रक्तज्वार।
आजानबाहु वह कालपुरुष
वह कामिनियों का कण्ठहार।
वह उर्वशियों का स्वप्न देव
वह ऋतुमतियों का ऋतुसंहार।
पर्याय पुरुष वह शोणित का
वह इस शताब्दि का. स्पष्ट भाष्य।
वह कुरुक्षेत्र का काव्य-कमल
वह यौवन का ऊर्जित उपास्य।
वह वासुदेव इस आँगन का
वह पूर्वघोष पूर्वाेदय का।
उनचास पवन का अनुगायक
वह रश्मिरथी सूर्याेदय का।
वह राजनीति का कुश-अंकुश
वह अघट अनय का रिपु विशेष।
राजीवनयन, वह करुणाकर
वह संस्कृतियों का अर्थश्लेष।
वह मूँद गया अपनी आँखे?
क्या कहते हो, वह चला गया?
अब-घायत्न माता हिन्दी को
वह बाँध हिचकियाँ रुला गया?
विश्वास नहीं होता मुझको
लगता है सब कुछ है असत्य।
प्रतिवाद करो ऋण मानूँगा
यह है असत्य, यह नहीं सत्य।
मरता है केवल मर्त्य मनुज
वह अमर कहाँ मर सकता है।
आजीवन जिसने नय गाया
क्या वह भी छल कर सकता है!
कल ही तो उसका काव्य पाठ
सुनता था, सागर शान्त पड़ा।
तिरुपति का नाथ सुना मैंने
हो गया मुग्ध रह गया खड़ा।
वह मृत्यु याचना तिरुपति में
अपने श्रोता से कर बैठा।
और वहीं कहीं हो समाधिस्थ
क्या कहते हो कि मर बैठा?
यदि यही मिलेगा देवों से
उत्कृष्ट काव्य का पुरस्कार।
तो कौन करेगा धरती पर
ऐसे देवों को नमस्कार!
कितना अच्छा होता दादा
यह पारिश्रमिक नहीं लेते।
उस निर्मम श्रोता के आगे
मुझसे कविता पढ़वा देते ।
तुम करते रहते संचालन
मैं कविताएँ पढ़ता रहता।
बारी न तुम्हारी आ पाती
उद्दण्ड सतत् लड़ता रहता।
पर पता नहीं तुम क्यों, कैसे
मानस पुत्रों को टाल गये!
इस बौनी गूँगी पीढ़ी पर
वाणी का बोझा डाल गये।
हम कन्धा तुमको दे न सके
हम श्राद्ध तुम्हारा कर न सके।
जो शून्य बनाया है तमने
हम तिल भर उसको भर न सके।
पर सम्भव हो तो सुनो आज
यह इस पीढ़ी की वाणी है।
संस्कार तुम्हारा बोल रहा
यह गिरा अमर कल्याणी है।
है वचन समूची पीढ़ी का
हम तुम्हें नहीं मरने देंगे।
इस गिन में तम को ताण्डव
हम कभी नहीं करने देंगे।
तुम नहीं मरे हो निरवंशी
मैं साबित करने आया हूँ।
बेशक अनाथ हूँ आज भले
तो भी दिनकर का जाया हूँ।
हे तीन लोक! चवदहों भुवन!
वक्तव्य सुनो इस वंशज का।
दायित्व निबाहूँगा पूरा
मैं दिनकर जैसे पूर्वज का।
आश्वस्त रहो हे पूज्य जनक
वाणी में अंश तुम्हारा है।
कुल, गोत्र भले ही हो कुछ भी
यह सारा वंश तुम्हारा है।
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‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
वंशज का वक्तव्य (कविता संग्रह)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - ज्ञान भारती, 4/14, रूपनगर दिल्ली - 110007
प्रथम संस्करण - 1983
मूल्य 20 रुपये
मुद्रक - सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, मौजपुर, दिल्ली - 110053
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