यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।
सागर की दासी
सागर की दासी नदियों को, सागर के घर रहने दो
नये पसीने की नदियों को मचल-मचल कर बहने दो
कितनी नदियाँ कितने नाले, पलते अपने आँगन में
फिर भी क्यों प्यासी हैं पलकें, भारत माँ की, फागन में
सुजला, सुफला माँ वसुधा को, प्यास अधिक मत सहने दो
नये पसीने की नदियों को.....
थक कर मत बैठो मंजिल के, बन्द पड़े दरवाजों पर
करना है अधिकार अभी तो ,भीतर के सुख-साजों पर
सुख-साजों पर नई कहानी, नये देश को कहने दो
नये पसीने की नदियों को...
नई नशीली भोर हुई है, नई किरण दी दिखलाई
चलो मुसाफिर कदम बढ़ाओ, क्या लेते हो अँगड़ाई
कुछ दिन और तुम्हारी सेजें, यूँ ही सूनी रहने दो
नये पसीने की नदियों को.....
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(एक मालवी लोक-धुन पर आधारित रचना।)
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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