यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
मत इतनी वासन्ती रोलो
थोड़ा सा संयम भी रखो
केसर धीरे-धीरे घोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो
गदरी-गदरी हो गई बगिया
रूपम् हुई अरूपम् अँगिया
सतरँग चूनर नवरँग हो गई
फिर भी दिखी न पचरँग पगिया
मेरा रोम-रोम रंग डाला
अपना मन भी तनिक भिंजोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो
ये कैसी पिचकारी मारी
ऊमर हो गई भारी-भारी
लाख जनम कर दिए गुलाबी
क्या मरजी है और तुम्हारी
कब ये सारा ऋण उतारेगा
इतनी भी नमती मत तोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो
ये कोयल ये भ्रमर निगोड़े
आ जाते हैं दोड़े-दौड़े
ना जाने क्या-क्या गाते हैं
सुधि के नीरज सभी झिंझोड़े
मुझसे तो सब बिखर गए हैं
अब ये मोती तुम्हीं पिरोलो
मत इतनी वासन्ती रोलो
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।
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