श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की उनतीसवीं कविता
खून
(सिन्धी कविता का अनुवाद)
‘शीलवती आग’ की उनतीसवीं कविता
खून
(सिन्धी कविता का अनुवाद)
मैंने अपने रक्त रंगे हाथों को देखा
मेरे ही हैं हाथ
किन्तु यह रक्त नहीं है मेरा।
मेरा होगा भी कैसे?
हो ही नहीं सकेगा मेरा।
हाथ-पाँव नीले हैं मेरे
और देह सारी पीली है
आँखें मेरी हरी कच्च हैं।
मेरे पास कहाँ से आया लाल रक्त यह!
निश्चय ही यह किसी दूसरे का ही होगा।
रक्त दूसरे का?
मेरे हाथों पर?
कैसे हो सकता है?
भला, किसी का खून बहाऊँगा मैं क्यों कर?
लेने-देने छिनवाने या
छीन झपट के लिये
किसी के पास रहा ही क्या है?
खून किसी का भला बहाऊँगा मैं कैसे?
मुझमें इतनी शक्ति कहाँ है?
और कहाँ सामर्थ्य शेष है
जो कि बहाऊँ रक्त किसी का?
ना
नहीं किसी का खून बहाया है मैंने।
मैं इसका सबूत रखता हूँ।
कि, मेरे पीछे कोई पुलिस नहीं हैं
किसी नियम या विधि विधान ने
न्यायालय में नहीं किया है प्रस्तुत मुझको।
जो निर्दाेषों तक को फाँसी दे देते हैं
वे क्या दोषी को यूँ
मुक्त विचरने देते?
तो फिर क्या है ?
खून नहीं है मेरा सचमुच
और नहीं है किसी दूसरे का भी
तो फिर मेरे हाथों पर यह क्यों है?
एक बार फिर मंने अपने
रक्त रंगे हाथों को देखा बहुत गौर से
और खुद से खुद ही पूछा
कहो! खून तुम किसके हो?
मेरे ही हाथों पर क्यों हो?
लगा कहकहा कहा खून ने
मुझे नहीं पहिचाना तुमने?
सच है
पहिचानोगे भी नहीं मुझे तुम।
मैं
रक्त तुम्हारा नहीं
तुम्हारे जीवन का हूँ
जीवन ने प्रत्येक एक को
अपना एक सलीब दिया है
जिसका बोझ स्वयं ही अपने आप
तुम्हें ढोना होता हैँ।
और रक्त अपने जीवन का
देकर अपने ही हाथों
एक विवश जीवन जीने को
खुद प्ररतुत होना होता है।
मेरे ही हैं हाथ
किन्तु यह रक्त नहीं है मेरा।
मेरा होगा भी कैसे?
हो ही नहीं सकेगा मेरा।
हाथ-पाँव नीले हैं मेरे
और देह सारी पीली है
आँखें मेरी हरी कच्च हैं।
मेरे पास कहाँ से आया लाल रक्त यह!
निश्चय ही यह किसी दूसरे का ही होगा।
रक्त दूसरे का?
मेरे हाथों पर?
कैसे हो सकता है?
भला, किसी का खून बहाऊँगा मैं क्यों कर?
लेने-देने छिनवाने या
छीन झपट के लिये
किसी के पास रहा ही क्या है?
खून किसी का भला बहाऊँगा मैं कैसे?
मुझमें इतनी शक्ति कहाँ है?
और कहाँ सामर्थ्य शेष है
जो कि बहाऊँ रक्त किसी का?
ना
नहीं किसी का खून बहाया है मैंने।
मैं इसका सबूत रखता हूँ।
कि, मेरे पीछे कोई पुलिस नहीं हैं
किसी नियम या विधि विधान ने
न्यायालय में नहीं किया है प्रस्तुत मुझको।
जो निर्दाेषों तक को फाँसी दे देते हैं
वे क्या दोषी को यूँ
मुक्त विचरने देते?
तो फिर क्या है ?
खून नहीं है मेरा सचमुच
और नहीं है किसी दूसरे का भी
तो फिर मेरे हाथों पर यह क्यों है?
एक बार फिर मंने अपने
रक्त रंगे हाथों को देखा बहुत गौर से
और खुद से खुद ही पूछा
कहो! खून तुम किसके हो?
मेरे ही हाथों पर क्यों हो?
लगा कहकहा कहा खून ने
मुझे नहीं पहिचाना तुमने?
सच है
पहिचानोगे भी नहीं मुझे तुम।
मैं
रक्त तुम्हारा नहीं
तुम्हारे जीवन का हूँ
जीवन ने प्रत्येक एक को
अपना एक सलीब दिया है
जिसका बोझ स्वयं ही अपने आप
तुम्हें ढोना होता हैँ।
और रक्त अपने जीवन का
देकर अपने ही हाथों
एक विवश जीवन जीने को
खुद प्ररतुत होना होता है।
(मूलकवि: श्री कृष्ण राही। सर्वभाषा कवि सम्मेलन,
आकाशवाणी दिल्ली में दिनांक 24 जनवरी 1980 को प्रस्तुत।)
-----
संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग
यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.