यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
पहली पीढ़ी टूट रही है
प्रश्नों का अन्धड़ उट्ठा है, आजादी के पथ में
राहू चढ़ना चाह रहा है, प्रजातन्त्र के रथ में
झिझका-झिझका इन्कलाब है, इसकी झिझक मिटाओ
हर सवाल का उत्तर देने, कण्ठ खोल कर आओ
पाँखुरियों के छोटे झगड़े, क्षार न करें सुमन को
इसकी सौरभ आत्मसात्, कर देनी है जन-जन को
अगर तुम्हारा लहू लाल है, नहीं हुआ है पानी
बोलो कैसे सहते हो तुम, मौसम की मनमानी?
राहू चढ़ना चाह रहा है, प्रजातन्त्र के रथ में
झिझका-झिझका इन्कलाब है, इसकी झिझक मिटाओ
हर सवाल का उत्तर देने, कण्ठ खोल कर आओ
पाँखुरियों के छोटे झगड़े, क्षार न करें सुमन को
इसकी सौरभ आत्मसात्, कर देनी है जन-जन को
अगर तुम्हारा लहू लाल है, नहीं हुआ है पानी
बोलो कैसे सहते हो तुम, मौसम की मनमानी?
नये सूर्य पर पोत रहा है कोई काजल काला
मावस को चुभता है अपनी ऊषा का उजियाला
मेहनत को बेइज्जत करते भावी के हत्यारे
जबरन मुँह में ठूँस रहे हैं कितने गन्दे नारे
माँ का आँचल फाड़-फाड़ कर बना रहे हैं झण्डे
दीख रहे हैं गली-गली में पुतले, जूते, डण्डे
पशुता नंगी नाच रही है अब तो आँखें खोलो
तुम पर सचमुच यौवन है तो, मेरे स्वर में बोलो।
गंगा जमना के रखवालों, छोड़ो नहीं दुधारा
अभी नहीं लौटा सरहद से जननी का हत्यारा
लोहू का उत्तर लोहू से, तुमको देना होगा
फौलादी हाथों से तुमको लोहा लेना होगा।
बोझा बढ़ता ही जाता है, धीरज नहीं गँवाओ
समय-समय पर खून-पसीना हँसते हुए बहाओ
‘जिसमें दम हो छूने आए फिर झेलम का पानी!’
(ये) मेरे साथ गरज कर बोले उसका नाम जवानी।
जब तक सूरज चाँद सितारे जब तक पावन गंगा
इसी शान से लहराओ तुम अपना अमर तिरंगा
पहिली पीढ़ी टूट रही है अपना भार संभालो
एक दूसरे की कृशता पर कीचड़ नहीं उछालो
परदेसी बैसाखी फेंको, अपने को पहिचानो
‘अपनी ताकत, अपनी मंजिल नारा लगे जवानों!
बलिवेला ने दस्तक दी है अपने द्वार उघारो
अगर जरूरत मेरी हो तो फौरन मुझे पुकारो
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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