यह संग्रह दा’ साहब श्री माणक भाई अग्रवाल को समर्पित किया गया है।
आज्ञा दो
माथे का मुकुट
और काँधे की अरथी
दोनों का अपना-अपना वजन है
जिसे ढोते हैं आप, ये, वे या और कोई।
चूँकि वजन, वजन है, सो
उठाना पड़ता है, ढोना पड़ता है
फर्क यही है कि
मुकुट पीढ़ियों को सौंपना जरूरी है
और अरथी के लिए मरघट तक रोना होता है।
यूँ देखो तो मोल दोनों का मिट्टी है
पर मुकुट के साथ गौरव, गरिमा, अतीत और इतिहास है
और अरथी?
अरथी के साथ विदा, वैराग्य, विकलता, विलाप और सन्ताप है।
निस्सन्देह तुलना बेमानी है
पर बात का अपना एक मुकाम है
बेमानी को मानी कर दे
कविता का और क्या काम है?
तो,
लो! एक वजन सामने आया पड़ा है
आपके, मेरे, इनके, उनके या और किसी के
चाहे आप वादी या प्रतिवादी हैं, पर
वजन सबको उठाना है
नाम जिसका ‘आजादी’ है
जो इसे मुकुट समझे वह इसे माथे पर चढ़ाए
सहेजे, सँवारे, सँभाले और पीढ़ियों को सौंपे
जिसे ये अरथी लगे
वो इसे कन्धा दे
रोये, ‘रामनाम सत्य’ बोले और
मसान में झोंके।
अपने-अपने मन को टटोल लो
एक-एक गाँठ खोल लो
अपना कद, हद और माद्दा देख लो
वजन आ गया है
तुम्हें अपने-आप में आना पड़ेगा
चाहे तुम कितना ही टालो
ये तुम्हें, तुम्हारी औलाद और
तुम्हारे बाप को उठाना पड़ेगा
मैं तुम्हारा वंश-भाट, तुम्हारा कुल-चारण
तुम्हारा दर्प-ड्यौढ़ी
अपनी पूरी वफा के साथ
ड्योढ़ी पर सन्नद्ध खड़ा हूँ
बोलो! हुकुम करो! आज्ञा दो !
अम्बर की अमराइयों तक
अभिषेक के महामन्त्र गुँजाऊँ
या गरेबाँ चीरूँ, बाल बिखेरूँ
और मातम का मर्सिया गाऊँ?
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और काँधे की अरथी
दोनों का अपना-अपना वजन है
जिसे ढोते हैं आप, ये, वे या और कोई।
चूँकि वजन, वजन है, सो
उठाना पड़ता है, ढोना पड़ता है
फर्क यही है कि
मुकुट पीढ़ियों को सौंपना जरूरी है
और अरथी के लिए मरघट तक रोना होता है।
यूँ देखो तो मोल दोनों का मिट्टी है
पर मुकुट के साथ गौरव, गरिमा, अतीत और इतिहास है
और अरथी?
अरथी के साथ विदा, वैराग्य, विकलता, विलाप और सन्ताप है।
निस्सन्देह तुलना बेमानी है
पर बात का अपना एक मुकाम है
बेमानी को मानी कर दे
कविता का और क्या काम है?
तो,
लो! एक वजन सामने आया पड़ा है
आपके, मेरे, इनके, उनके या और किसी के
चाहे आप वादी या प्रतिवादी हैं, पर
वजन सबको उठाना है
नाम जिसका ‘आजादी’ है
जो इसे मुकुट समझे वह इसे माथे पर चढ़ाए
सहेजे, सँवारे, सँभाले और पीढ़ियों को सौंपे
जिसे ये अरथी लगे
वो इसे कन्धा दे
रोये, ‘रामनाम सत्य’ बोले और
मसान में झोंके।
अपने-अपने मन को टटोल लो
एक-एक गाँठ खोल लो
अपना कद, हद और माद्दा देख लो
वजन आ गया है
तुम्हें अपने-आप में आना पड़ेगा
चाहे तुम कितना ही टालो
ये तुम्हें, तुम्हारी औलाद और
तुम्हारे बाप को उठाना पड़ेगा
मैं तुम्हारा वंश-भाट, तुम्हारा कुल-चारण
तुम्हारा दर्प-ड्यौढ़ी
अपनी पूरी वफा के साथ
ड्योढ़ी पर सन्नद्ध खड़ा हूँ
बोलो! हुकुम करो! आज्ञा दो !
अम्बर की अमराइयों तक
अभिषेक के महामन्त्र गुँजाऊँ
या गरेबाँ चीरूँ, बाल बिखेरूँ
और मातम का मर्सिया गाऊँ?
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संग्रह के ब्यौरे
दो टूक (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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