होली (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की पन्द्रहवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की पन्द्रहवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



होली

विवाद इस बात पर नहीं था कि यह होली जले या नहीं जले,  रगपट्टा यह था कि  होली ‘यहाँ’ जले या नहीं जले। तरह-तरह के लोग और किस्म-किस्म के दिमाग। पता नहीं किसने यहाँ होली जलाने की सुर्री छोड़ी पर धीरे-धीरे बात आगे बढ़ती गई और यार लोगों ने होली का डाँडा यहाँ पर गाड़ ही दिया। एक बार जब होली का डाँडा गड़ गया तो फिर किसकी हिम्मत है, जो उसे उखाड़ दे?

वैसे होली के मामले में हजारों सालों से एक परम्परा चली ही आ रही है कि माघी पूनम को होली का डाँडा गाड़ो और फागुन की पूनम को, जितना भी अलिद्दर-दलिद्दर उसके आस-पास गाँववाले रख जाएँ या फेंक जाएँ, उसे धूमधाम से ढोल बजा-बजाकर गाते-नाचते जला दो। अब यह अलग बात है कि लोग उसमें न जाने क्या-क्या फेंक-फाँक जाते हैं। अंग्रेजी में जैसे ‘सॉरी’ कहने से हजार गुनाह माफ हो जाते हैं, वही मामला होली का भी है। आप मनचाही भड़ास निकाल लें और हल्ला करके कह दें, ‘बुरा न मानो होली है’, बस! सारी बात खत्म।

पर इस बार गाँव में होली माता ने नया बखेड़ा खड़ा करवा दिया। ये तो भला हो दो-चार समझदार लोगों का, जो सारा मामला निपटा-निपटू दिया, वरना वह लाठी चलती कि पलाशों की जगह लाशों का रंग बह जाता।

वैसे देखो तो हुआ-हुआया कुछ नहीं। एक जमाना था, जब कि हर गाँवे में एक रावण बनाया और मारा या जलाया जाता था। आज जमाना यह आया कि गाँव-गाँव रावणों की संख्या बढ़ गई। एक के दस हो गए। दस माथों की जगह सौ माथे आसमान में तन गए। जब आप गली-गली रावण बनाने और जलाने से नहीं रोक सकते हैं तो फिर होली पर कौन सा कानून लगा सकेंगे? हमारा गाँव, हमारी गली, हमारा मुहल्ला और हमारी होली। हम क्या किसी के बाप का खा रहे हैं, जो कोई हमें रोक देगा? हम होली में अपने घर का दलिद्दर जलाएँ या दादाजी की दौलत, आप कौन होते हैं आड़ लगानेवाले? गाँव-बस्ती के आजवाले लड़के इस डायलॉग तक आ पहुँचे हैं। फिर इस बार तो इस गाँव की टोपी में एक तुर्रा और भी लग गया है। पंचायत का सरपंच इसी गाँव का अपना आदमी चुना गया और वह भी हमारे अपने इसी मुहल्ले का। उसके घर के सामनेवाले चौक में होली गड़ेगी, फिर पुजेगी और धूम-धड़ाके से जलेगी। जिसको भी राज-कचहरी करना हो, करके देख ले। वो जमाना गया, जब होली पटेल की पोल और सेठजी की हवेली के सामने जलाई जाती थी। अब देश में लोक-तन्तर है और जनता खूब जानती है. कि किसका तन्तर किस तरह कर दिया जाए।

सो इस सरपंच चौकवाली होली के पीछे भी दो-चार लोगों ने कोई-न-कोई तन्तर पहले अपने दिमाग में फिट किया और फिर उस तन्तर को इस होली माता पर चिपका दिया। वैसे देखो तो बात, न बात का नाम। चुनाव, चुनाव की जगह हैं। कभी हो जाते हैं, कभी नहीं होते। पर इस बार पंचायत का चुनाव हो ही गया और लोकल राजनीति की गोटियाँ कुछ ऐसी बैठीं कि बालू बा का बेटा बगदीराम ग्राम पंचायत का सरपंच बन बैठा। अब बन क्या बैठा, उसे बना दिया गया। न तो बालू बा चाहते थे, न बगदीराम। पर कहीं-न-कहीं बगदीराम की हथेली में राज रेखा शायद है कि किसी कारण से वह एकाएक गहरी हो गई होगी। सो जोग संजोग में बदल गया।

इस बदलाव का असर गाँव पर पड़ना था, सो पड़ा ही। बरसों से चले आ रहे गाँव के कई समीकरण एकाएक बदल गए। लोगों की लाग और लगावों में गहरा फर्क आ-गया। चतुर लोगों के रास्ते बदल गए। और तो और, खेत-खलिहानों पर जाने-आने के सनातन रास्तों से समझदार लोग इधर-उधर होने लगे। समझदार और सयाने लोग सब समझते थे। कहनेवाले कह भी देते थे, पर बालू बा के व्यवहार और विनम्र बोलचाल से कड़वाहट सतह के ऊपर नहीं आ पाई। बालू बा ने जिन्दगी देखी थी उन्होंने बगदीराम को बार-बार कुल मिलाकर एक ही बात कही कि ये जो राजकाज है, वह नवरात्रि की छाया जैसा मामला है। और नवरात्रि नौ दिन की होती है। दसवें दिन दशहरा और ग्यारहवें दिन ग्यारस माता का व्रत करना ही पड़ता है। अगर ग्यारस माता का व्रत नहीं करो तो बारहवें दिन प्रदोष पक्का। इसलिए इस सरपंची पर इतराना मत। जोग-संजोग है कि लॉटरी में यह पंचायत अपने जैसे समाज के नाम पर खुल गई, वरना सात-सात जनम तक इस खानदान का कोई आदमी सरपंची की कुरसी पर नहीं पहुँच सकता था। बालू बा समझाते-समझाते यहाँ तक कह बैठते थे कि ‘तुझे सरपंच बनानेवाले लोग खुद नहीं बन सकते थे, इसलिए उन्होंने तुझे सरपंच बनाकर अपनी राजनीति पूरी कर ली। अगली बार लॉटरी में यही पंचायत अगर सामान्य खुल गई तो बगदू! तू तो क्या, तेरा बाप भी सरपंच नहीं बन सकेगा। इसलिए गाँव-बस्ती और लोक-मर्यादा का ध्यान रखकर, सबसे मिल-जुलकर काम करना और अपनी राम-राम, श्याम-श्याम की रामा-शामी में कहीं कोई बदबू मत मिला देना। जनता का राज और लोक-तन्तर तलवार की धार पर चलनेवाली बात है। तेरा सिर जिस दिन अभिमान में ऊँचा होगा उस दिन मेरी नाक नीची हो जाएगी। इस बात का ध्यान रखना।’

बगदू सरपंच रोज इस तरह की बातें सुनता और उनको पल्ले बाँधता। बेशक वह पढ़ा-लिखा लड़का था और उसको सरपंच बनानेवाले करीब-करीब सभी वार्ड मेम्बर कमोबेश उसी की उम्र के थे। तब भी सरपंच पद पर आने के छह महीनों में ही उसने अनुभव कर लिया था कि सत्ता का चरित्र वेश्या का चरित्र होता है। वह यह भी समझ गया था कि कुरसी कभी खाली नहीं होती। यह सदा सुहागन रहनेवाली काठ की पुतली है। पद पर रहकर अपने गाँव का विकास करना और जनता की सेवा भी करने का मतलब निकलता है कि आप पनघट के आस-पास पत्थरों पर जमी हुई काई पर नंगे पाँव चलो। इंच-इंच पर पाँव फिसलने का डर। जरा फिसले कि गिरे। सँभलकर चलो, वरना यार लोग तमाशा देख-देखकर तालियाँ बजाएँग और ठट्ठा करेंगे सो अलग। अब अगर गिरेगा तो वह बगदू नहीं गिरेगा, गिरनेवाला ‘बगदू सरपंच’ होगा।

इतनी समझदारी के साथ काम करनेवाले बगदू सरपंच को भी भाई लोगों ने होली पर लत्ती मार ही दी। अपनी खुन्नस निकालने के चक्कर मंे चण्ट-चतुर लोगों न होली का एक डाँडा चुपचाप ही बगदू सरपंच के वार्ड में उसके घर के पासवाले छोटे से चौक पर गाड़ दिया। नाम दे दिया ‘सरपंच साहब की होली।’ न जाने कहाँ-कहाँ से लाकर इस होली पर लोगों ने झाड़-झंखाड़, अलिद्दर-दलिद्दर इकट्ठा कर दिया। बालू बा ने समझाया, पर माने कौन! बगदू ने भी हाथ जोड़े कि जहाँ जलती आ रही है वहीं जलने दो। एक नया बखेड़ा मत खड़ा करो। पर जब डाँडा गड़ गया तो गड़ गया। अब यह बखेड़ा नहीं है, होली है और होली को जलना है। बस! बालू बा ने जब तर्क करने की कोशिश की तो भाई लोगों ने तरह-तरह के उदाहरण देकर उन्हें चुप कर दिया।

बालू बा ने कहा, ‘भैया! एक गाँव में दो होलियाँ शोभा नहीं देतीं। कल से गली-गली में होलियाँ जलना शुरु हो जाएँगी तो जनता का एका टूटेगा अलगाव बढ़ेगा। पानी पर लकीरें मत खींचो। एक होली जले, एक रावण मरे तो दशहरे और होली पर गाँव की एकता नजर आती है। अभी भी समझ लो और इस होली को अपने गाँव की जूनी होली में डालकर इस अलगाव को धो डालो। यह कहाँ का बखेड़ा है कि एक होली गाँव की और एक होली सरपंच की!’

पर दाँव लगानेवालों ने बालू बा के नहले पर दहला यों कहकर जड़ दिया कि ‘बा, अगर रावण दो होते हैं तो उनको-मारनेवाले राम भी तो दो होते हैं। अगर होलियाँ दो हैं तो प्रह्लाद भी दो होंगे न। आप अपनी नजर रामजी और प्रह्लादजी पर रखा करो। इस उम्र में कहाँ आप रावण और होली को देखने बैठ गए।’ और सयानों का वह टोला ‘होली है’ का हल्ला करता हुआ अगली तैयारी में लग गया।

अगली तैयारी होनी भी क्या थी। गाँव के एक उभरते हुए लोक कलाकार को होली का शानदार पुतला बनाने का ऑर्डर दिया गया। उसकी गोद में प्रह्लाद ऐसा बैठाना है कि होली जल जाए, पर प्रह्लाद का पुतला सही-सलामत, साबुत बच जाए। होली को बदसूरत नहीं बल्कि शानदार और खूबसूरत बनाने की खास हिदायतें दी गईं। सरपंच की शान के मुताबिक होली की वेशभूषा बढ़िया हो। प्रह्लाद राजकुँवर जैसा ही हो, वगैरह -वगैरह। कलाकार को मन का काम मिल गया था। उसे उसका मेहनताना भी पूरा मिल रहा आ। उसके पास अभी बीस दिनों का समय शेष था। उसने मन लगाकर दानों पुतले बनाने का सिलसिला शुरु किया। उसे तरह-तरह के सुझाव मिलते और वह हर सुझाव पर विचार करता और उनके अनुरूप् पुतलों को आकार देता। प्रह्लाद के पुतले का उसके सामने कोई विशेष रूप-प्ररूप नहीं था। उसे तो जीवित बचना ही था। वैसे भी प्रह्लाद का पुतला सीमेण्ट का बनाया जा रहा था, ताकि होलिका दहन के बाद भी प्रह्लाद सुरक्षित रहे। कारीगरी और कलाकारी तो होली के पुतले में थी। बगदू सरपंच इस सारी  तैयारी से अनजान अपनी सरपंची कर रहा था। उसे तो बस होली के दिन शुभ मुहर्त में दहन के लिए होली के आस-पास तीन फेरे लगाकर पुतले को आग लगानी थी। 

जिस शाम को होलिका-दहन होना था, अपराह्न में ढोल-ताशों और बैण्ड-बाजों के साथ भाई लोगों ने ट्रैक्टर-ट्रॉली में जुलूस के साथ दोनों पुतले लाकर बगदू सरपंचवाली नई होली के चौक पर स्थापित कर दिए। ठेले पर लाउडस्पीकर लगाकर गाँव में ऐलान करवा दिया कि स्थानीय कलाकार की शानदार कला के दर्शन करने पधारो। होली माता का ऐसा पुतला आज तक न तो बना है, न बेेनगा। मुहूर्त रात साढ़े आठ बजे का। अभी भरपूर समय है। जो भी लोग इस आदर्श होली को देखना चाहें, वे देख लें।

हर गली-मुहल्ले से लोग-लुगाइयाँ नई होली को देखने के लिए ठट्ठ-के-ठट्ठ जुट गए। लोग देख-देख कर तारीफ करते। क्या तो होली का चेहरा, क्या तो खूबसूरती! क्या उसका पहनावा, क्या उसकी धज और क्या रुतबा! कलाकार कभी रोमांचित होता तो कभी गद्गद। जनता का अभिवादन स्वीकार करते-करते वह थक गया। नौजवानों ने लाउडस्पीकर पर पूरी आवाज में लोकगीतों के कैसेट बजाने और भरपूर मस्ती के साथ उत्तेजक ढोल बजवाने का काम चालू रखा। होली के आस-पास लोगों की टिप्पणियाँ हो तो रही थीं, पर सुनी नहीं जा रही थीं।

ऐसे में बालू बा भी उस कलाकृति के दर्शन करने पधार गए। बगदू सरपंच को तो मुहूर्त पर ही आना था। उसके तथा गाँव के दो-चार लोगों के लिए कुरसियाँ और बेंचें लगाई जा रही थीं। बालू बा आए उन्होंने होली के पुतले को पहली नजर देखा और उनकी आँख और मुँह.... वे चीखते तो भी वहाँ सुनता कौन? चौक से जरा ही दूरी पर दस-पन्द्रह लड़के जान-बूझकर अनजान बने चपर-चपर कर रहे थे। सचमुच में वे किसी हुड़दंग का प्लान बना रहे थे। ये वे ही लोग थे, जिन्होंने इस होली की सारी रचना पहले दिन से आज तक की थी। 

बालू बा ने हाथ जोड़कर करीब-करीब रिरियाते हुए उनसे कहा, ‘भैया, तुमने ये क्या किया? इस होली के पुतले का तो सारा रूप-रंग, चेहरा-मोहरा, पहनावा और सज-धज सब पुरानेवाले सरपंच की घरवाली जैसा है। उसे पता चलेगा तो अभी यहाँ खून-खच्चर हो जाएगा। तुम अभी ही, इस सारे मायाजाल को समेटो और इस गाँव को आराम से रहने दो। मत करो झगड़ा।’

बालू बा अपना मुकदमा पेश कर ही रहे थे कि एक दूसरी टोली पुरानेवाले सरपंच साहब को होली माता के दर्शन करवाने के लिए लेकर वहाँ आ गई। होली का दिन और कुरसी छिन जाने के घाव से लहूलुहान अहम्वाला सरपंच अपने घर के भीतरवाले आँगन में शराब पी रहा था। यार लोग उसे उकसाकर उठा लाए। कुहराम और कोलाहल के घनघोर निनाद में पूर्व सरपंच ने होली के पुतले पर ज्यों ही एक नजर डाली, उसकी सारी दारू उतर गई। वह पहले कुछ ठिठका, फिर उसने अपने जबड़े भींचे, आँखों को पूरा विस्तार दिया और आसमान भरकर चीखा। सारे जीवन में उसने गालियों की जो भी सम्पदा इकट्ठी की थी, वह सब उसने धरती से आकाश तक फैला दी। एक ऐसा तमाशा शुरु हुआ जिसे सँभालनेवाला शायद ही कोई हो। उसने बजते ढोल को दो लात दी। ढोल फूट गया। लाउडस्पीकर के तारों को तोड़-ताड़कर तहस-नहस कर दिया। आस-पास पड़े काँटों और लकड़ियों के ढेर में से एक मोटा लट्ठा निकाला और चारों तरफ दौड़ना शुरु कर दिया। बालू बा से उसने कहा, ‘बाल्या! बुला अपने बगद्या को। वो तेरी औलाद हो तो आज यहाँ होली जलाकर देख ले। किसने बनाया है यह पुतला।’ और पता चला कि सबसे पहले पुतला बनानेवाला कलाकार ही वहाँ से भागा था।

जाते-जाते वह कहता जा रहा था, ‘मैंने पूरे सात दिनों तक लोगों, के हाथ जोड़े कि मत बनवाओ ऐसी शक्ल। पर मेरी किसी ने नहीं सुनी। मैं क्या करता? इसमें ढाई सौ रुपए के तो कपड़े ही लगे हैं, बाकी खर्चा अलग। प्रह्लाद के पुतले में दो बोरी सीमेंट लगी और रंग-रोगन, कपड़े-लत्ते का पैसा अलग। अभी तो मेरी पेमेण्ट भी बाकी है। और अब जूते भी मैं ही खाऊँ? जलना हो तो जले और नहीं जलना हो तो नहीं जले, मेरी बला से।’

हालात का पता चलते ही बगदू सरपंच मौके पर पहुँचा। होली जलाने का मुहूर्त निकट आ रहा था। दर्शकों की भीड़ प्रतिपल बढ़ती जा रही थी और दर्शकों में स्वयमेव दो दल हो गए थे। एक दल कहता था, ‘होली जलेगी’ और दूसरा कहता था, ‘जिसकी माँ ने दूध पिलाया हो, कोई जलाकर देख ले।’ बगदू निरपराध होते भी सर झुकाए खड़ा हुआ न जाने क्या सोच रहा था।

(और सुधी पाठक महानुभावों! मैं आपको अपनी पूरी संस्कृति-भावना के साथ यह अधिकार देता हूँ कि कृपया आप इस कहानी को अपनी-अपनी भारतीयता के साथ कोई अन्त दें। मैं इस कहानी को समाप्त नहीं कर पा रहा हूँ। प्रार्थना मेरी यही है कि कृपया आप इसमें सरकार को नहीं लाएँगे तो आपकी बड़ी महरबानी होगी। गाँव की बात  तक ही रहे तो शायद इस कहानी को सही अन्त मिल सके। आइए, हम नए और पुराने दोनों सरपंचों से कहें - “बुरा न मानो होली है।’) 

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 ‘बिजूका बाबू’ की चौदहवी कहानी ‘पीढ़ियाँ’ यहाँ पढिए।

‘बिजूका बाबू’ की सोलहवी कहानी ‘दवे साहब का कुत्ता’ यहाँ पढिए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 
  
 

 


 


 


  


 


   



 

 

   

 

 


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