जब भी आते हैं, बेचारे, लट सहला कर जाते हैं
अपना तो भई तूफानों से, बढ़कर दूजा मीत नहीं
जब तक बात रही बूते में, रक्खी मैंने सबकी मर्जी
लेकिन जो भी मिले आज तक, निकले सब के सब खुदगर्जी
सौगन्धें खा गये पचासों, दिल की भी दे गये दुहाई
जो भी पलटे, ऐसे पलटे, वापस नहीं शकल दिखलाई
दिल की डींग हाँकनेवालों से, सबको भगवान बचाये
दाता ने सब दिया इन्हें पर, दी पल्ले में प्रीत नहीं
अपना तो भई तूफानों से.....
राधाओं से लाख गुना, शुभ सिद्ध हुई मुझको बाधाएँ
इनसे नहीं अधिक लगती हैं, प्यार पगी मुझको राधाएँ
लिपटी रहती हैं पैरों में, रात और दिन चौड़े-धाले
देखा करती नन्द महरिया, देखा करते हैं सब ग्वाले
कभी न मैंने इन्हें बुलाया, गोकुल की अलियों-गलियों में
इनकी खातिर छेड़े मैंने, मुरली पर भी गीत नहीं
अपना तो भई तूफानों से.....
धोखे दिए हमेशा मुझको, दिलवाले इन्सानों ने
दुर्गम पंथ सुगम कर डाले, मेरे तो तूफानों ने
राह बुहारी मेरी इनने, मुजरा सौ-सौ बार किया
मैंने देनी चाही छुट्टी, तो इनने इन्कार किया
छाया जैसे साथ लगे हैं रहते, हैं दाँये-बाँये
मेरी ऊँगली कभी न छोड़ी, गये कभी विपरीत नहीं
अपना तो भई तूफानों से.....
इनने जीना सिखा दिया है, मैं इनका आभारी हूँ
यूँ कहता हूँ तो कहते हैं, फिर भी मैं उपकारी हूँ
स्वामिभक्ति की हद कर डाली, देखो तो इनकी नरमाई
ज्यों ही मेरे तेवर बदले, इनकी भी पलकें भर आईं
व्यर्थ इन्हें बदनाम किया है, हाड़-चाम के पुतलों ने
सच पूछो तो इनसा कोई पावन और पुनीत नहीं है
अपना तो भई तूफानों से.....
रोज कलेजे से लगते हैं, रोज गले से मिलते हैं
माखन से भी अधिक नरम हैं, आहट सुनी, पिघलते हैं
क्या जाने तुम क्यों डरते हो, आखिर कुछ तो बतलाओ
मीत-प्रीत की बात करो कुछ, मुसकाओ, बाहें फैलाओ
जो करते सौदा-समझौता, उनको ये कायर कहते हैं
खुली बात है कायर की किस्मत में लिक्खी जीत नहीं
अपना तो भई तूफानों से.....
-----
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
No comments:
Post a Comment
आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.