मन उदास हो गया आज कुछ

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की अट्ठाईसवीं कविता




मन उदास हो गया आज कुछ, अनायास अनजाने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने


सूनापन ही सूनापन है, चारों ओर उदासी

सौरभ निचुड़ गया सपनों का, साँसें हुईं रुँआसी,

आँसू भी खो गये अतल में, आती नहीं रुलाई

बेचैनी आ गई पाहुनी, वो भी बिना बुलाई,


और मीत बने यहाँ भी, वे ही परिचित ताने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने



इस बेला में तुझको भी तो, सौ-सौ बार पुकारा

सोचा था यूँ मिल जायेगा, थोेड़ा-बहुत सहारा,

लेकिन हर आवाज लौट कर, सचमुच रीती आई

व्यर्थ बावरा कहलाया मैं, व्यर्थ हुई रुसवाई,


किसको गरज पड़ी है मेरी, कौन मुझे पहचाने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने



लाख करी कोशिश, हँसूँ कुछ, खुद पर ही मुसकाऊँ

स्मृतियों पर अन्याय करूँ कुछ, मन को कहीं लगाऊँ,

किन्तु हाय! इस पापी ने भी, मेरी एक न मानी

और अधिक उलझाया मुझको, अधिक हुई हैरानी


मेरी हालत किसे बताऊँ, मैं जानूँ, मन जाने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने



भारीपन है इतना ज्यादा, हटता नहीं हटाये

बैठे-बैठे तेरे मन के, गीत अनेकों गाये

बार-बार रुँध आता है स्वर, भर-भर आती बानी

सचमुच सच था तेरा कहना, ये सब है नादानी


कौन खीज कर तेरे जैसा, आवे यहाँ मनाने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने



बड़ा कठिन है, क्या बतलाऊँ, यूँ तो मेरा जीना

क्या तो मरघट तक जाना और, क्या आँसू का पीना,

सचमुच बहुत बुरी लगती है, तुझसे इतनी दूरी

बतला किस दिन विधवा होगी, ये बैरन मजबूरी,


नये घाव हो गये हजारों, भरते नहीं पुराने

गीतों पर आ गई गरीबी, निष्ठुर! तू क्या जाने

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963

पूर्व कथन - ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले’ यहाँ पढ़िए

सत्ताईसवीं कविता: ‘मेघा तो घिर आये गगन में’ यहाँ पढ़िए

उनतीसवीं कविता: ‘अपना तो भई तूफानों से’ यहाँ पढ़िए








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