जग तुमको जो देता ताने
इसमें मेरा दोष नहीं है
क्या कहते हो, मैंने तुमको, नाहक ही बदनाम किया है
यह तो तुमने, मैंने, जग ने, अपना-अपना काम किया है
बेबस चकवी पर चन्दा का
क्या यह झूठा रोष नहीं है
जग तुमको.....
तुमने तो अब तक न बताया, पंथ तुम्हारे मन्दिर का
नैनों की राहों मन्दिर तक, फिर भी पहुँचा रथ अन्तर का
चाहे मत मानो, मुझको तो
तब से अब तक होश नहीं है
जग तुमको.....
ये मत सोचो कहनेवाले, तुमसे ही कुछ कहते होंगे
भँवरों के चुम्बन का ब्यौरा, कलियों से भी लेते होंगे
कायर अलि पर फिर भी कलियाँ
लाती तिल भर रोष नहीं हैं
जग तुमको.....
किस-किस का हम मुँह पकड़ेंगे, लाख जबानें चलती हैं
जो ज्यादा पुजता है उस पर, दुनिया ज्यादा जलती है
क्या फागुन के रथ के पथ में
आते मगसर, पौष नहीं हैं
जग तुमको.....
तुम जानो और यह जग जाने, मुझको जग से क्या लेना है
किन्तु तुम्हें जब मन सौंपा है तो, बस इतना ही कहना है
खत्म न होंगे, ये ताने हैं
आशीषों का कोष नहीं है
जग तुमको.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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