गंगोज (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की सत्रहवीं कहानी)




श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की सत्रहवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।



गंगोज

बिलकुल अनजानी जगह हो, आप पहली बार वहाँ गए हों, आपका अपना वहाँ कोई नहीं हो, न आप किसी को जानें, न कोई आपको पहचाने, रास्ता चलते आदमी तो आदमी अनावर-जनावर भी आपको नहीं देखते हों, वहाँ अगर कोई आपके सामने आकर खड़ा हो जाए, फिर बिलकुल आपके पास करीब-करीब सटकर बैठ जाए, आपका नाम बता दे, आपके पिताजी का नाम बता दे, आपकी जाति बता दे, आपका जिला और आपका गाँव ही नहीं, आपके गाँव के दो-चार जाने पहचाने लोगों के नाम बता दे, तो क्या आप चौंक नहीं पड़ेंगे? चौंकना तो चौंकना, आपका कलेजा मुँह को आ जाएगा, धक् रह जाएगा। आप चकरा जाएँगे, चक्कर खा जाएँगे, धरती पर धड़ाम हो जाएँगे।

अपने अमरचन्द के साथ यही हुआ। जिन्दगी में पहली बार हरिद्वार गया। गया क्या, ले जाया गया। उसके सेठ टीटू पण्डित की मारुति वैन को टैक्सी के तौर पर चलाता हुआ ड्राइवर अमरचन्द जिस परिवार को लेकर हरिद्वार गयाा वह परिवार अमरचन्द को वहीं हरिद्वार में छोड़कर आठ-दस दिनों के लिए वहाँ से दूसरी रेग्यूलर टैक्सी लेकर बद्रीनाथ-केदारनाथ-गंगोत्तरी-जमुनोत्तरी-चार धाम की पवित्र यात्रा पर चला गया। जाते समय उस परिवार ने अमरचन्द को छह सौ रुपयों के नोट थमाए और कहा कि ‘हम लोग ज्यों ही वापस आएँगे, फिर अपने घर को निकलना है। इसलिए तू अपने बाल-बच्चों के लिए कुछ खरीद-वरीद लेना। अपना खाना-वाना आराम से खाना। यहीं हर की पौड़ी पर रोज गंगास्नान करना। अपनी गाड़ी में ही सोना और सँभलकर रहना। किसी अफड़े-लफड़े में मत पड़ जाना, वरना ये हरिद्वार है। यहाँ तेरी जमानत भी नहीं होगी। इतनी सारी हिदायतें सुनकर अमरचन्द का मन बहुत टूटा। उसने दस-बीस बार सोचा कि वह भी अपने यात्री परिवार के साथ ही बद्री-केदार हो आए, पर उसकी हिम्मत नहीं हुई। फिर यात्रियों की संख्या का चक्कर भी पड़ता था। टैक्सीवाला पाँच से ज्यादा सवारियाँ लेता नहीं। अमरचन्द को और शामिल किया जाता तो सवारियाँ छह हो जातीं। मन मारकर अमरचन्द वहीं रुक गया। उसने सोचा, गंगा मैया की यही मरजी है। वैसे भी परिवार का वह पहला आदमी था, जो हर की पौड़ी तक पहुँचा था। उसके पुरखे तो गंगा-यात्रा के सपने देखते-देखते ही दुनिया से चले गए थे। घडी-दो घड़ी उसने अपने आपको तसल्ली दी, मन को समझाया और हरिद्वार की रेलम-पेल में रम जाने की मानसिकता बना ली। उसे आठ से दस दिन यहीं काटना है। ड्राइवर आदमी अगर दो घण्टे भी एक मुकाम पर ठहर जाए तो उसके हाथ-पाँव जाम हो जाते हैं। किलोमीटर के पत्थर तक गिनने की और देखने की जिसकी आदत नहीं रही हो, जो केवल सामने की सड़क और मंजिल का नाम देखता चलता रहे, उसे आप एक जगह, वह भी अपने बच्चों से दूर, अपने साथी-संगातियों से बहुत दूर, अकेला आठ-दस दिन के लिए बैठा दें, यह कैसे हो सकता है?

पहले अमरचन्द अपनी गाड़ी पर गया। उसे उसने प्यार से सहलाया। चारों तरफ घूमकर उसे देखा। पहियों को ठोक-बजाकर टटोला। अपने गले में पड़े गमछे से स्टीयरिंग की पोंछ-पाँछ की। चारों फाटक बन्द किए। फिर गाड़ी लॉक की। एक चक्कर फिर से गाड़ी का लगाया और सामनेवाले होटल पर चाय पीने चला गया। ले-दे कर बस यही एक आसरा हो सकता है कि वह इस होटलवाले से दोस्ती गाँठ ले। ड्रायवर आदमी होटलवाले से दोस्ती नहीं करेगा तो क्या किसी सोने-चाँदी की दुकानवाले से करेगा? उसने चाय पी। फिर होटल से सटी हुई पान की गुमटी के सामने जाकर खड़ा हो गया। सँकरा रास्ता और हरिद्वार की सड़कें! आते-जाते रिक्शे, तिपहिया, टेम्पो, जातरी और यात्री। न जाने कहाँ-कहाँ के साधु-सन्त! भगवान का नाम लेने की जिन्हें फुरसत नहीं ऐसे भगवाधारी। साइकिलों पर पैडल मारते अजब-गजब के लोग। भण्डारे की तलाश में घूमते-फिरते न जाने कैसे-कैसे विरक्त और गृहस्थ। इधर भीड़, उधर भीड़। एक पान खाने के लिए पहले पचास धक्के खाओ। अमरचन्द दस मिनट में ही बौखला गया। इतनी सारी चहल-पहल में, भागती ही नहीं, करीब-करीब गंगा की धारा जैसी बहती भारी भीड़ में तन से भी अकेला और मन से भी अकेला। गंगा मैया की जय से अधिक कारों, स्कूटरों, मोटर साइकिलों के हॉर्नों की आवाजें। साइकिल-रिक्शा की लगातार बजती घण्टियाँ। रगड़ते-छिलते कन्धे। अमरचन्द को लगा कि एक हफ्ते में तो वह पागल हो जाएगा। बगल में ही उसने एस. टी. डी. टेलीफोन का बूथ देखा, पर फोन करे तो भी कहाँ करे? दुनिया से जुड़ने का सारा साधन सामने। जीती-जागती चलती-भागती दुनिया उसके आस-पास, लेकिन कितना अकेला पड़ गया अमरचन्द। उसके मन में आया कि एक बार वह जोर से चीखे। अपने परिवार के किसी भी सदस्य का नाम लेकर चिल्लाए। उसे पुकारे। मंसादेवी की पहाड़ियों से अपनी आवाज को भिड़ा दे। पर यह सब भी अगर वह कर ले, तब भी किसकी सहानुभूति यहाँ मिलनेवाली है। उसे आठ-दस दिन अकेले रहना है और अकेले भी इस भरे संसार में ही रहना है।

पानवाले ने उसे पान दिया। फिर उसने सिगरेट का एक पैकेट खरीदा। इतनी सी देर में दो-तीन लोग और एक-दो रिक्शे उससे साइड माँगते हुए टकराकर निकल गए। उसने लम्बा हाथ किया। पचास का नोट पानवाले को दिया। पानवाले ने अपना पैसा काटकर बाकी रकम उसे लौटाते हुए नसीहत दी, ‘भैया! पाई-पैसा सँभालकर रखना। जेबकतरों से सावधान रहना।’

यह नसीहत सुनते-सुनते अमरचन्द सिहर पड़ा। अपने यात्रियों के जाने के बाद यह पहला बोल था, जो अमरचन्द ने इस पराए तीरथ में किसी के मुँह से उसके अपने हित का सुना था। उसे लगा कि यहाँ भी उसका भला चाहनेवाला भगवान ने बैठा रखा है। भगवान है और सचमुच है। वह आश्वस्त होकर सामनेवाले चबूतरे पर बैठ गया। सिगरेट पीते-पीते उसने अपने मन में दस दिनों के लिए दिनचर्या को आकार दिया। रूपरेखा बनाई। सोचा, अमरचन्द की आज की उपलब्धि यह रही कि उसे इस सर्वथा अपरिंचित शहर में एक चायवाला और एक पानवाला हासिल हो गया। बोलने-बतियाने का सिलसिला शुरु तो हुआ! उसका अकेलापन टूटा। एक से दो ही नहीं, तीन हो गए। वह कहीं जाकर खड़ा हो सकता है। रेलम-पेल कम हो तो दो-एक बोल, बोल सकता है। दो-एक दिनों में उसका अनमनापन कुछ कम हुआ। वह भी इस गहमागहमी का एक हिस्सा बन गया।

शायद यह तीसरा या चौथा दिन था। गंगा के एक घाट पर बैठा-बैठा अमरचन्द गंगा मैया के मटमैले पानी पर नजरें गड़ाए राम जाने कहाँ-कहाँ के गढ़े गूँथ रहा था। तभी एक बिलकुल अनजाना, अपरिचित आदमी उसके पास आया। अमरचन्द ने उसे भी अपने ही जैसा यात्री मानकर ‘राम-राम’ भी नहीं की। पर जब सामनेवाले ने साधिकार कहा, “भैया अमरचन्द! तीरथ में आकर गंगा किनारे ‘जय गंगा माई’ भी नहीं बोलोगे?” तब अमरचन्द हक्का-बक्का रह गया। अजनबी ने अमरचन्द की मनःस्थिति का आकलन कर लिया। अमरचन्द के जिले का नाम लेते हुए उसने पूछा, ‘तुम इसी जिले के रहनेवाले हो?’

अमरचन्द अवाक्। 

फिर उसने अमरचन्द के गाँव का नाम लेकर पूछा, ‘यही गाँव है न तुम्हारा?’

अमरचन्द के मुँह से निकला - ‘हाँ।’

‘तुम्हारे पिताजी का नाम दीपचन्दजी था न?’

सिवाय हाँ कहने के, अमरचन्द के पास कोई चारा नहीं था। 

‘तुम लोग सोनकर हो न?’ अजनबी का अगला सवाल था।

‘हाँ साहब, हम सोनकर हैं।’

बात यहीं खत्म नहीं हुई। सामनेवाला बोला ‘दीपचन्दजी को मरे यह चौथा साल है न?’

घबराकर अमरचन्द खड़ा हो गया। गंगा के ठण्डे किनारे पर भी उसे पसीना छूट गया।

आगत भाई ने अमरचन्द को सिखावन दी ‘तू यहाँ बैठा-बठा पान-सिगरेट कर रहा है। तेरा बाप वहाँ श्राद्ध के लिए छटपटा रहा है। तेरी माँ के मरने के बाद जिस बाप ने तुझे माँ की तरह पाला हों, तू उसी बाप को, गंगा के किनारे आकर भी पिण्डदान नहीं दे। उसके फूल गंगा में ब्रह्मकुण्ड को अर्पण नहीं करे। न माँ का तर्पण करे, न बाप का। अच्छा-खासा खाता-कमाता ड्राइवर है और माँ-बाप अभी तक पानी माँग रहे हैं। वाह-रे अमर! वाह रे सपूत! चल उठ, खड़ा हो जा! हर की पौड़ी पर चल। तेरे पण्डाजी से मिलवा देता हूँ  केदार-बद्री से तेरी पार्टी वापस आए, तब तक तू इस कर्मकाण्ड से निपट ले, अपना कर्ज उतार ले। माँ-बाप को पिण्डदान देकर अपना जन्म सकारथ कर ले। जिन्दगी में बार-बार गंगा किनारे आना होता है क्या? हाँ, तेरे चार-पाँच बाप हों तो बात अलग है।’

अमरचन्द को लगा कि उसका जन्म अकारथ है। उसके कारण उसके माँ-बाप अधर में लटके हुए हैं। धिक्कार है उसकी जिन्दगी को। मन हुआ कि गंगा में छलाँग लगा ले। आँखों में आँसू छलछला आए। हाथ जोड़कर वह खड़ा हो गया।

अजनबी ने ही उसे साइकिल रिक्शा पर अपने साथ बैठाया। पण्डाजी के पास ले गया। उसे पण्डाजी को सौंपा। अमरचन्द की कठिनाई यह थी कि उसके पास न उसकी माँ के फूल थे, न बाप के। दोनों की अस्थियाँ पहले ही चम्बल में विसर्जित हो चुकी थीं। जात गंगा को माँ के वक्त उसका बाप और बाप के वक्त खुद अमरचन्द भोजन करवा चुका था। पण्डाजी के पास ऐसी बातों के लिए पचास रास्ते तैयार थे। अमरचन्द को समझाया, ‘तू चाहे जजमान! तो सोने के फूल बनवा ले, चाहे तो चाँदी के बन जाएँगे। अगर सोने-चाँदी की हैसियत नहीं है तो कुदरत के खिलाए सफेद चमेली-जूही के फूल तैयार हैं। खर्च-वर्च की चिन्ता मत कर। हमारे लोग साल-दो साल में उधर आते रहते हैं। तेरी श्रद्धा और हैसियत जो भी हो, तू तब दे देना, पर पहले माथे पर से माता-पिता का यह पिण्ड-प्रदान का बोझा तो उतार।’

और...और...ठीक चौघड़िया देखकर अमरचन्द का माथा मूँड दिया गया। सारा श्राद्धकर्म पूरी श्रद्धा से करवाया गया। पण्डाजी ने पूरा सत्कार किया । जब तक अमरचन्द अभी हरिद्वार में रहे, तब तक उसके खाने-ठहरने की सारी व्यवस्था कर दी । श्राद्ध कर्म के निमित्त वह इस समय जो भी ठीक समझे, राशि दे दे। बाकी लेन-देन होता रहेगा। पण्डों और जजमानों का लेन-देन, रिश्ता-नाता जनम-जनम का रहता है। अमरचन्द तो पण्डा-परिवार के इस उदार आचरण पर हैरान रह गया। अपनी जेब टटोलकर उसने जितना भी इस समय वह दे सकता था, उतना पण्डाजी को अर्पित कर दिया। बाकी अपने गाँव जाकर वह भेज देगा या पण्डाजी के प्रतिनिधि को दे देगा, यह वचन गंगाजल की अंजुलि भरकर कर दिया। पण्डाजी ने प्रसादी, गंगाजली, कण्ठीमाला, गंगाजी का कुण्ड्या और हाथ में यात्रा की डाँगड़ीवाली लकड़ी थमा दी। अमरचन्द को भरोसा दिलवा दिया कि वह घर पहुँचेगा, उससे पहले वहाँ उसकी पत्नी को यह सूचना मिल चुकी होगी कि अमरचन्द हरिद्वार में अपने माता-पिता का पिण्डदान करके आ रहा है वहाँ सारी तैयारी कर ले। जौ-जुवारे बो दे और गंगा माई के रतजगे शरु कर ले। अमरचन्द जब वहाँ पहुँचे तब सीधा घर में प्रविष्ट नहीं हो जाए। उसे ढोल-ढमाके के साथ बधावे। गाँव में उसके जुलूस निकाले। जाति-समाज को इकट्ठा करे। जब तक गंगोज नहीं हो जाए तब तक अमरचन्द मुहल्ले के किसी मन्दिर या देवल पर ही अपना डेरा लगाए। इस परिवार में यह पहला गंगोज है, पहली गंगा-पूजा है, इसका ध्यान रखे। गाँव के किसी सीमावर्ती कुएँ या बावड़ी से महिलाएँ कलश भरें । फिर कलश-यात्रा निकले। सबके नए वेश-लुगड़े हों । जिसे कोई देवभाव आता हो, उसका धूप-ध्यान पूरा किया जाए। नाई, कुम्हारों का भाव भरा स्वागत-सत्कार हो। जात-गंगा के महत्वपूर्ण लोगों को और समाज के पूज्य लोगों को भेंट-दान-दक्षिणा जैसी व्यवस्था की जाए। उस दिन अमरचन्द पुराना कपड़ा नहीं पहने। पहले अमरचन्द सभी बुजुर्गों को पाँवधोक करे, फिर जो भी लोग गंगा माता को सम्मान देना चाहें, वे अमरचन्द के पाँव छुएँ। अमरचन्द के घर में केवल इसी के पाँव हैं, जो गंगाजल से भी धुले हैं, वगैरह-वगैरह।

नौवें दिन बद्री-केदारवाली पार्टी वापस लौट आई। वे लोग एकाएक अमरचन्द को पहचान नहीं पाए। पर जब पता चला कि अमरचन्द ने अपने पुरखों को तार दिया है, तो सभी उसे बधाइयाँ देने लगे। अमरचन्द जब अपनी पार्टी को लेकर वापस लौटने लगा तो उसने चायवाले और पानवाले अपने मित्रों से विदा लेना चाही। अमरचन्द अपनी हैरानी को छिपा नहीं पाया। उसने दोनों से पूछा, ‘भैया, मुझे यह तो बता दो कि इन पण्डों को मेरा नाम, पता और ये सारी बातें मालूम कैसे हो गई?’

पानवाला हँसा। बोला, ‘अमरचन्द! यह हरिद्वार है। यहाँ के पण्डे घट-घट और घर-घर की जानकारी पाने का माद्दा रखते है। इनके लोग अकसर ज्वालापुर से ही यात्रियों को सम्हाल लेते हैं। रहा सवाल तेरा, सो भैये! जब तूने उस दिन पान और सिगरेट खरीदने के बाद, पचास का नोट मुझे देने के लिए अपना हाथ लम्बा किया था, तब तेरे हाथ पर नील-से गुदा हुआ तेरा नाम ‘अमरचन्द’ मैंने देख लिया था। इनके आदमी को मैंने तेरा नाम बता दिया और बता दिया कि तू मारुति वैन लेकर एक पार्टी को लाया है। तेरा नाम और तेरी मारुति वैन का नम्बर मिल जाने के बाद तो फिर यहाँ का सारा तन्त्र-संसार इस एस. टी. डी. पर दुनिया भर से मनचाही जानकारी इकट्ठी कर लेता है। इन्होंने यह तक पता लगा लिया होगा कि तेरी घरवाली का नाम क्या है और तेरी जाति पंचायत में क्या हैसियत है? तू घर पहुँच तो सही। जो कुछ वहाँ होने जा रहा है, उसकी जानकारी तुझे यहाँ से नहीं होगी।

एक विचित्र सा रोमांच लेकर अमरचन्द ने अपनी वापसी यात्रा शुरु की। उसके लिए यह बिलकुल पहला और अकेला अनुभव था।

और सबकुछ वैसा ही हुआ। पण्डाजी ने इस नगर के अपने दो जजमानो को टेलीफोन करके अमरचन्द के घर तक सारे समाचार और योजना पहुँचा दी थी। गत दस-बारह दिनों से अमरचन्द के यहाँ गंगा माता के गीत गाए जा रहे थे। उसके कई नाते-रिश्तेदार उसका इन्तजार कर रहे थे।

गंगोज की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। उसके सेठ ने एकाएक अमरचन्द को पहचाना नहीं, पर फिर उसे घर जाने के लिए छुट्टी दे दी। जब वह घर पहुँचा तो सचमुच उसकी सुहागन ने उसे घर में घुसने नहीं दिया। जैसा-जैसा पण्डाजी ने कहा था, वैसा-वैसा होता चला जा रहा था। कुल मिलाकर यही, पच्चीस-तीस हजार के बीच में अमरचन्द इधर-उधर का कर्जदार हो गया। ब्याज का घोड़ा लगातार दौड़ रहा है। यह अलग बात है कि जाति समाज में अमरचन्द का रुतबा जरा ठीक-ठीक जम गया। उसकी घरवाली का ठसका ही बदल गया। आखिर उसने गंगोज जो कर लिया!

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‘बिजूका बाबू’ की सोलहवी कहानी ‘दवे साहब का कुत्ता’ यहाँ पढिए।

‘बिजूका बाबू’ की अठारहवी कहानी ‘अन्धा शेर’ यहाँ पढिए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 

 


 


 


 

 

   


 

 

 


  

 

 


 

 


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