बालकवि की ललकार और महाकवि का मर्म



श्री बालकवि बैरागी और डॉ. शिव चौरसिया


डॉ. विवेक चौरसिया

आज दादा श्री बालकवि बैरागी की 94वीं वर्ष-गाँठ है। दादा होते तो आज अपने जीवन के 95वें वर्ष में प्रवेश कर रहे होते। यह लेख, उनके जीवित रहते, उनकी अन्तिम जन्म वर्ष-गाँठ पर लिखा गया था। फेस बुक पर प्रकाशित हुआ था। मैंने वहीं से लिया है। दादा और शिव दादा (श्री शिव चौरसिया मेरे ‘शिव दादा’ हैं) का ‘संतृप्त-रसायन-यौगिक’, लेख के शब्द-शब्द से टपकता है - कुछ इस तरह कि पढ़ नहीं रहे, सामने बैठ कर विवेक चौरसिया को सुन रहे हों। लेख के मालवी संवादों का भावानुवाद मैंने इसलिए किया है- ताकि बातों का मर्म उन तक भी पहुँचे जो मालवी नहीं जानते। 

मैं बोलता तोतला था और गाता बेसुरा, पर हर बार ईनाम लाता क्योंकि मैं बालकवि बैरागी की कविता सुनाता था और गीत गाता था।

छठवीं क्लास से लगातार पाँच साल मैंने और मेरे बड़े भाई ने स्कूल की काव्य-पाठ और गीत-गायन प्रतियोगिताओं में ईनाम जीते। जब भाई आठवीं में था, मैंने छठवीं में प्रवेश लिया। शासकीय नईपेठ स्कूल के वार्षिकोत्सव की काव्य-पाठ स्पर्धा में मैं और गीत-गायन में बड़ा भाई प्रथम आया। हम दोनों ने बालकवि बैरागी के गीत सुनाए थे।

‘ललकार’ नाम की, उनके गीतों की एक पॉकेट बुक पिताजी ने दी थी। उसमें से मैंने ‘नौजवान आओ रे, नौजवान गाओ रे’ अपने लिए चुना और भाई ने ‘मेरे देश के लाल हठीले’। पिताजी ने काँच के सामने खड़ा कर दोनों को खूब प्रैक्टिस कराई। भाई का मामला जम गया था, पर 11 बरस की उम्र में भी मेरी तुतलाहट दूर करने का कोई तरीका पिताजी को न मिला। 

स्पर्धा की घड़ी आई और बम्बाखाना के कॉटन भवन में जब मैंने पूरे जोश से सुनाया ‘नौजवान आओ रे, नौजवान गाओ रे। लो क़दम बढ़ाओ रे, लो क़दम मिलाओ रे’ तो तालियाँ बज उठीं। सहपाठी, शिक्षक और निर्णायकों को गीत के बोल याद रहे, मेरे उच्चारण दोष भूल गए।

मैं विजेता था और यही मेरा बालकवि बैरागी से पहला परिचय। पहला आकर्षण, पहला लगाव!

आगे जब समझ बढ़ी तो समझ आया कि ‘कण्टेण्ट पॉवरफुल’ हो तो ‘पूअर प्रजेण्टेशन’ भी ‘बेस्ट’ बन जाता है। 

ईश्वर जानता है, कवर पर, बन्द मुट्ठी के फोटो वाली उस किताब के एक-एक गीत को हम दोनों भाइयों ने किस कदर जपा था। दोनों ही पूरे पाँच-पाँच साल सिर्फ बालकवि बैरागी को सुनाकर ईनाम में पेन, कम्पास, कापियाँ लाते रहे।

तब, जब बच्चे राष्ट्रीय गीतों के, बाजार में मिलने वाले संकलनों के कॉमन-से सुने-सुनाए गीत चुनते थे, हमारे पास नए-ताजे गीतों का खजाना था। दादा बैरागी के गीतों का।

जब समझ बढ़ी तब समझ आया कि नया हो, अलग हो, दमदार हो तो जय होती ही है।

उसके बाद, तब के ‘नईदुनिया’ में छपी उनकी हर कविता, हर कहानी को मैंने अखण्ड भाव से पढ़ा। ‘मनुहार भाभी’ नामक संकलन में कुछ कहानियाँ एकत्र छपी भी। और भी बहुत कुछ। कई लेख। खासकर फ़िल्म ‘रेशमा और शेरा’ पर दो लेख, जो सम्भवतः धर्मयुग में छपे थे। एक का शीर्षक था ‘एक फ़िल्म और तीन सांसद’। इन्दिराजी के उत्सर्ग के बाद हुए चुनाव में वे, सुनील दत्त और अमिताभ बच्चन सांसद बने थे। तीनों उस फिल्म से जुड़े थे, उसी का संस्मरण था वह। लाजवाब। 

बस बैरागी मन में बसते गए।

बालकवि बैरागी मेरे परिवार के बड़े हैं। मेरे कवि पिता डॉ. शिव चौरसिया के साहित्यिक-अग्रज। पिता के ‘दादा’ और हम सबके भी। पिता के साथ आत्मीय-अनुबन्ध में दोनों ने खूब सुख-दुःख साझा किए होंगे। शायद पचास साल होने को आए।

इस बीच वे जब भी उज्जैन आए, कई बार घर भी पधारे। वे मालवी और हिन्दी के जितने बड़े कवि हैं उतने ही मंचजयी प्रस्तोता। जितने बड़े कथाकार हैं उतने ही ऊँचे वक्ता। जितने बड़े राजनेता हैं उससे लाख-लाख गुना बड़े इंसान!

जब-जब मेरे घर उनके चरण पड़े, मन-आँगन पावन हुआ है।

राजनीति की ‘काजल कोठरी’ भी उनके निर्मल मालवी मानव को कभी ‘एक टिपकी’ तक नहीं लगा पाई। 

कोई ‘नजर का टीका’ भी कैसे लगाने का दुस्साहस कर पाता? आखिर उनकी ‘नजर’ ही ऐसी है कि किसी की ‘नजर’ लगने से पहले ही झुक जाएगी।

मार्च 2012 में, मेरी माँ के देहान्त के बाद जब वे घर आए, मैं पिता के पास ही था। छूटते से बोले-‘ए शिव! कित्ता दिन री रे वा थारा साथे?’ (क्यों शिव! वो तेरे साथ कितने दिन रही?)

पिताजी ने जवाब दिया, ‘दादा! पचास बरस।’

दादा बोले-‘थारी भाभी भी इत्ताज बरस म्हारा साथे री। फिर गइ! उके भी गया के छह महीना हुई गया। सब चल्या जाएगा। कौन रुक्यो है! पन तू दुःख मत मनाजे। थारे रोने को अधिकार नी है क्योंकि तू कवि है।’ (तेरी भाभी भी इतने ही बरस साथ रही। फिर गई। उसे भी गए छह महीने हो गए। सब चले जाएँगे। कौन रुका है! पर तू दुःख मत मनाना। तुझे रोने का अधिकार नहीं है क्योंकि तू कवि है।)

ये मेरे समझ-सम्पन्न दिन थे। मैं एक महाकवि की ‘शोकाभिव्यक्ति’ का मर्म समझ चुका था।

सच! कवि कितना सहते हैं और कितना कम कह पाते हैं! उस दिन भी दादा और मेरे पिता अनकही कविताओं में बात कर रहे थे।

सौभाग्य से सुनने को मैं भी वहाँ था।

‘जन्म-दिन पे प्रणाम दादा! आप इनी धरती से कदी, कईं मत जाजो। नी तो म्हारा जैसा मनक के रइ-रइ ने कौन समझायेगो!’

(जन्म-दिन पर प्रणाम दादा! आप इस धरती से कभी, कहीं मत जाना। वरना, मुझ जैसे आदमी को, रह-रह कर कौन समझाएगा?)

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डॉ. विवेक चौरसिया -- देश के जाने-माने सम्पादक, पत्रकार। पौराणिक ग्रन्थों के अध्येता और प्राधिकार-व्याख्याकार। उज्जैन में रहते हैं। देश के अग्रणी अखबारों, प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रमुखता से, नियमित रूप से छप रहे हैं।