याद नहीं आता कि निगम साहब से इस बार का मिलना कितने बरसों बाद हुआ। लेकिन मिलने पर पाया कि वे वैसे के वैसे ही हैं जैसे कि कुछ बरस पहले मिले थे। लगा, उन्होंने काल को अपनी मुट्ठी में बन्द कर नियन्त्रित कर लिया हो।
मैं बात कर रहा हूँ उज्जैन निवासी डॉ। श्याम सुन्दरजी निगम की। 1977 के अगस्त में मैं रतलाम में आया तो किराये का पहला मुकाम बना, पेलेस रोड़ पर श्रीकमला शंकरजी ओझा का मकान ‘प्रशान्ति निलयम्’। तब निगम साहब रतलाम कॉलेज में पढ़ा रहे थे और ‘प्रशान्ति निलयम्’ में ही किरायेदार थे। वे 1969 1980 तक रतलाम कॉलेज में रहे। सो, उनके कार्यकाल के अन्तिम दो-ढाई साल उनका सत्संग मिला। तब मैं नव विवाहित था। ज्ञान और दुनियादारी के मामलों में उन्होंने मुझे भरपूर समृद्ध किया। उन्हें लेकर मेरे पास संस्मरणों का खजाना है लेकिन एक अब तक उन सबमें ‘टॉप’ पर बना हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे लेकर निगम साहब अब भी खुद पर हँसने का अजूबा और साहस कर लेते हैं।
पीएच. डी. करने से पहले निगम साहब कोई सात-आठ विषयों में एम.ए. होने के अतिरिक्त एम. कॉम., एल. एल. बी., भिषगाचार्य, साहित्याचार्य, साहित्य रत्न, शिक्षा रत्न, आयुर्वेद रत्न जैसी उपाधियों के स्वामी भी हैं। कुछ उपाधियों में उन्होंने प्रावीण्य सूची में स्थान प्राप्त किया तो कुछ में स्वर्ण पदक भी हासिल किए। शेष सबमें प्रथम श्रेणी ही प्राप्त की। पता नहीं यह सब उन्होंने कब और कैसे किया होगा। मेरा यह संस्मरण उनकी इन्हीं उपाधियों को लेकर उपजा।
निगम साहब ने अपने निवास के बाहर अपनी नेम प्लेट लगा रखी थी जिस पर इन सारी उपाधियों का उल्लेख था। मैंने एक-दो बार ही इनका नोटिस लिया था। किन्तु एक दिन वह हो गया जिसकी कल्पना और किसी को हो न हो, निगम साहब को तो कभी नहीं रही होगी।
यह सम्भवतः अप्रेल 1980 के किसी एक दोपहर की बात होगी। गर्मी ने पाँव पसारने शुरु कर दिए थे। घरों में पंखे चलने लगे थे। सड़कें नीरव होने लगी थीं। निगम साहब और मैं, उनके अगले कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। अचानक ही दो बच्चों की बातों ने हमारा ध्यानाकर्षण किया। दोनों बच्चे दसवीं-ग्यारहवीं के छात्र रहे होंगे। रास्ते चलते उन्होंने निगम साहब की नेम प्लेट पढ़ी। ढेर सारी डिग्रियों को पढ़ने में समय तो लगना ही था। सो, दोनों खड़े रह कर पढ़ने लगे। पढ़ने के बाद दोनों में कुछ इस तरह सम्वाद हुआ -
यह सम्भवतः अप्रेल 1980 के किसी एक दोपहर की बात होगी। गर्मी ने पाँव पसारने शुरु कर दिए थे। घरों में पंखे चलने लगे थे। सड़कें नीरव होने लगी थीं। निगम साहब और मैं, उनके अगले कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। अचानक ही दो बच्चों की बातों ने हमारा ध्यानाकर्षण किया। दोनों बच्चे दसवीं-ग्यारहवीं के छात्र रहे होंगे। रास्ते चलते उन्होंने निगम साहब की नेम प्लेट पढ़ी। ढेर सारी डिग्रियों को पढ़ने में समय तो लगना ही था। सो, दोनों खड़े रह कर पढ़ने लगे। पढ़ने के बाद दोनों में कुछ इस तरह सम्वाद हुआ -
‘देख तो रे! इसने कित्ते सारे एम. ए. कर रखे हैं!’
‘हाँ! यार, भोत सारे हैं।’
‘यार! इत्ते सारे एम. ए. करने में तो भोत पढ़ना पड़ा होगा!’
‘चल-चल, इत्ता कोई पढ़ सकता है? नहीं पढ़ सकता। जरूर इसने टीप-टीप कर (नकल कर) पास की होंगी।’
‘हाँ यार! तू सई के रिया है। टीप कर ही पास हुआ होगा।’
अन्तिम वाक्य कहने के साथ ही दोनों बच्चे तो चले गए लेकिन मैं और निगम साहब अवाक् हो, एक दूसरे की शकल देखने लगे। कुछ भी सूझ नहीं पड़ा कि बच्चे क्या कह गए और क्या हो गया! बाहर पसरा सन्नाटा कमरे के भीतर तक चला आया था। निगम साहब के चेहरे पर एक के बाद एक रंग आ-जा रहे थे। मैं संकोचग्रस्त हो अपने में ही सिमट गया था। हम दोनों एक दूसरे की साँसों की आवाज और हृदय की धड़कनों को साफ-साफ सुन रहे थे। कितना समय इस दशा में बीता, हम दोनों को अब तक याद नहीं। लेकिन जल्दी ही निगम साहब अपने में लौटे और बुक्का फाड़ ठहाका लगा कर मालवी में बोले - ‘हत्तेरे की। या बात तो मारा ध्यान में आज तक नी आई के ऐसो भी वेई सके। अब तो मने भी लागवा लाग्यो के मूँ टीपी नेऽज पास व्यो वूँगा।’ (धत्तेरे की। यह बात तो आज तक मेरे ध्यान में भी नहीं आई कि ऐसा भी हो सकता है। अब तो मुझे भी लगने लगा है कि मैं नकल करके ही पास हुआ होऊँगा।) पहले तो ठहाका और फिर यह वाक्य सुनकर मेरी साँस में साँस आई और मैं भी ठहाका मार कर निगम साहब के साथ हो लिया। उसके बाद निगम साहब ने सबसे पहले जो काम किया वह था - जोर-जोर से हँसते हुए, अपनी नेम प्लेट उतारने का। शायद वे इस घटना की आवृत्ति की जोखिम लेने को अब क्षणांश को भी तैयार नहीं थे।
कई सारी बातें आई-गई हो गईं किन्तु यह बात आज भी जस की तस बनी हुई है। सो, इस बार दो जनवरी को जब मैंने उनके चरण स्पर्श किए तो उन्होंने यही किस्सा याद करते हुए मुझे बाँहों में भर लिया।
इस समय वे 79वें वर्ष में चल रहे हैं किन्तु उन्हें देख कर लगता है कि वे अभी कॉलेज जाने के लिए निकल पड़ेंगे। 1991 में सेवा निवृत्त होने के बाद वे जिस योजनाबद्ध तरीके से सक्रिय हुए, लगा कि वे सेवा निवृत्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपनी आदरणीया माताजी के नाम पर उन्होंने ‘कावेरी शोध संस्थान्’ की स्थापना कर अपने निवास को मानो तीर्थ बना लिया। क्षेत्रीय लोक परम्पराएँ,भारतीय सामाजिक एवम् आर्थिक जीवन का इतिहास, पुराभिलेख एवम् पुरालिपि विज्ञान, क्षेत्रीय/आंचलिक इतिहास, विभिन्न युगीन भारतीय संस्कृति जैसे जटिल विषय उनके प्रिय विषय हैं। अब तो उन्हें भी याद नहीं कि उनके निर्देशन में कितने बच्चों ने पीएच. डी. कर ली है। सम्मेलनों/संगोष्ठियों मे भागीदारी, विभिन्न ग्रन्थों का सम्पादन, शोध आलेख लेखन, टीवी/रेडियो पर साक्षात्कार और वार्ताएँ, ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएँ, पर्यावरण रक्षण की गतिविधियाँ आदि काम उन्हें फुरसत में नहीं रहने देते। उनके निवास पर दो-चार शोधार्थी बने ही रहते हैं। निगम साहब की जीवन संगिनी आदरणीया भाभीजी श्रीमती स्नेहलता निगम, ‘गुरु माता’ की तरह उनकी देखभाल करती हैं। चार शोध ग्रन्थों सहित 15 पुस्तकें, हिन्दी एवम् अंग्रेजी में साठ से अधिक शोध पत्र, दो सौ से अधिक आलेखों का प्रकाशन उनके खाते में जमा हैं। गए आठ वर्षों से हिन्दी-अंग्रेजी त्रैमासिक ‘शोध समवेत’ का प्रकाशन निरन्तर किए हुए हैं। उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों का काम इस पत्रिका के बिना नहीं चलता। उल्लेखनीय बात यह है वे सरकार से फूटी कौड़ी भी नहीं लेते। सब कुछ अपने और मित्रों के दम पर कर रहे हैं। ‘सीकरी’ ने उन्हें रिझाने की अनेक कोशिशें की किन्तु इस ‘सन्त’ ने एक बार भी उसकी नहीं सुनी। इस महर्षि के सामने सत्ता सदैव की ‘चेरी भाव’ से ही नतमस्तक खड़ी रहने को विवश हुई है।
निगम साहब उज्जैन में गौ घाट के पास स्थित केशव नगर कॉलोनी में निवासरत हैं। उनके निवास का नाम समर्पण और मकान नम्बर 34 है।उज्जैन महाकाल की नगरी के रूप में जाना जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि वहाँ दो महाकाल हैं। एक सारी दुनिया के और दूसरे मालवा के महाकाल।
अगली बार उज्जैन जाएँ तो मालवा के महाकाल के दर्शन भी कीजिएगा। उनसे मिल कर लौटते समय तीर्थ दर्शन का आनन्द साथ-साथ चला आता है। हाँ, जाने से पहले फोन नम्बर (0734) 2551317 पर तलाश अवश्य कर लें। कहीं ऐसा न हो कि आप ‘समर्पण’ पहुँचें तो मालूम पड़े कि मालवा का महाकाल किसी बौद्धिक समुदाय को समृद्ध करने के लिए विचरण कर रहा है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। -----
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अच्छा लगा श्री श्याम सुन्दरजी निगम जी के बारे में जानना। बाकी अपने पास काश उन सी डिगरियां होतीं!
ReplyDeleteऐसे ही अच्छे लोगों से परिचय कराते रहिये. छात्रों की बातचीत मजेदार रही. हमारे बरेली में भी एक वफ़ा साहब थे जिनके पास बहुत सी डिग्रियां थीं. वैसे नाम की वह तख्ती आजकल कहाँ है?
ReplyDeleteहम दर्शन कर चुके हैं… और सौभाग्यशाली हैं कि हम भी उज्जैन में ही निवास करते हैं…।
ReplyDeleteअब की उज्जैन यात्रा में उन से मिलना हो सकेगा।
ReplyDeleteश्री श्याम सुन्दरजी निगम का परिचय बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका "about me" बहुत सुन्दर लगा ,अदभुद भाव छिपे है इनमे
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