जरा तलाश करना! इन्हें आप्टे साहब मिले?


फेस बुक पर अचानक ही यह तस्वीर नजर आई। कुछ दिन पुरानी है। फिल्मी दुनिया के कुछ लोग प्रधान मन्त्री मोदी से मिलने गए थे। उसी समय की तस्वीर है यह। चित्र में प्रधान मन्त्री मोदी, अभिनेत्री परिणीति चोपड़ा से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाए नजर आ रहे हैं। जवाब में परिणीति हाथ मिलाने के बजाय हाथ जोड़ कर नमस्कार करती दिखाई दे रही हैं। इस चित्र ने फेस बुक की ‘चाय की प्याली में तूफान’ ला दिया। अधिकांश लोगों ने परिणीति के इस व्यवहार को प्रधान मन्त्री मोदी का अपमान माना और खिन्नता जताते हुए परिणीति को अनेक परामर्श दिए। कुछ लोगों ने इस व्यवहार को भारतीय संस्कृति का निर्वाह मानते हुए परिणीति की सराहना की। ‘लाइक’ और ‘ट्रोलिंग’ से ‘आच्छादित’ इस समय में कुल मिलाकर लोगों ने अपनी भावनानुरूप ही मूरत देखी। चित्र पर लोगों की प्रतिक्रियाएँ देखकर मुझे, पचास बरस से अधिक पहले, अंग्रेजी के अपने प्रोफेसर आप्टे साहब से खाई जोरदार डाँट-फटकार याद आ गई। 

मैं उस समय के अविभाजित मन्दसौर  जिले के रामपुरा कॉलेज में बी. ए. के दूसरे साल में था। अंग्रेजी के प्रोफेसर एस. डी. आप्टे साहब उसी बरस स्थानान्तरित होकर रामपुरा आए थे। मैं मन्दसौर कॉलेज से बी. एससी. के पहले साल में फेल होकर रामपुरा कॉलेज में, बी. ए. में भर्ती कराया गया था। रामपुरा बड़े गाँव जैसा कस्बा था। उसके मुकाबले मन्दसौर बहुत बड़ा शहर होता था। कॉलेज में छात्रों की संख्या का आलम यह कि मन्दसौर कॉलेज में, बी. एससी. के प्रथम वर्ष की तीन कक्षाओं की छात्र संख्या, रामपुरा कॉलेज की सभी वर्षों की सभी कक्षाओं की छात्र संख्या के बराबर। रामपुरा कॉलेज का प्रत्येक प्रोफेसर, कॉलेज के प्रत्येक छात्र/छात्रा को नाम और शकल से पहचानता था। बी. ए. दूसरे वर्ष की कक्षा में हम कुल चौदह छात्र/छात्रा थे। ‘मन्दसौर रिटर्न’ होना मुझे रामपुरा में सबसे अलग करता था। मेरा रहन-सहन, चाल-चलन ‘फैशनेबल’ माना जाता था। अपनी यह दशा अनुभव कर मैं भी खुद को ‘स्मार्ट’ मानने लगा था और वैसा ही व्यवहार भी करने लगा था।

आप्टे साहब स्थूल शरीर, ऊँचे डील-डौल और गुरु-गम्भीर व्यक्तित्व वाले थे। बड़ी-बड़ी आँखें और गूँजती आवाज। कम बोलते थे। उनका कम बोलना हमें आतंकित करता था। शुरु के कुछ महीनों तक उनके सामने हमारे बोल ही नहीं फूटते थे। स्थिति ‘तनावपूर्ण किन्तु नियन्त्रण में’ जैसी बनी रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे बर्फ पिघली तो मालूम हुआ - ‘अरे! आप्टे साहब तो नारियल हैं! ऊपर से हड्डी तोड़ कठोर लेकिन अन्दर से सजल मुलायम और मीठे।’ जिस पर लाड़ आता, उसे ‘अरे! गधे’ कह कर पुकारते। कुछ ही महीनों में, गिनती के हम विद्यार्थियों में ‘गधा’ बनने की होड़ शुरु हो गई। 

सब कुछ ऐसा ही चल रहा था। लेकिन एक दिन मेरी ‘ओव्हर स्मार्टनेस’ ने मुझे आप्टे साहब के हत्थे चढ़ा दिया। उस दिन मैं कक्षा में सबसे बाद में लेकिन आप्टे साहब से पहले पहुँचा। मैं कक्षा में घुस ही रहा था कि आप्टे साहब आते दिखे। मैं रुक गया। सोचा, सर के पीछे ही कक्षा में जाना चाहिए। यहाँ तक तो ठीक था लेकिन वह मूर्खता हो गई जिसने जिन्दगी का बड़ा पाठ पढ़ा दिया। 

मैं कक्षा की दहलीज के बाहर खड़ा था। आप्टे साहब पहुँचे तो उन्हें प्रभावित करने के लिए, हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, विनम्रताभरी एँठ से बोला - ‘गुड मार्निंग सर!’ अपनी रौ में झूमते चले आ रहे आप्टे साहब झटके से ठिठक गए। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें हैरत से और बड़ी हो गईं। मुझे घूरकर देखने लगे। मुझे पल भर भी नहीं लगा यह समझने में कि मैंने कोई बड़ी गड़बड़ कर दी है और मैंने अब अपनी खैर मनानी शुरु कर देनी चाहिए। आप्टे साहब की शकल देखकर मैं हनुमान चालीसा का पाठ करने लगा। 

यह स्थिति कुछ ही क्षण रही। आप्टे साहब धीरे-धीरे मेरे पास आए। अपना भारी-भरकम हाथ उठाया। मुझे लगा - ‘आज तो बेटा विश्न्या! तू गया काम से!’ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। बहुत ही धीमे से उन्होंने मेरी टप्पल में धौल टिकाई और बोले - ‘अरे गधे! तू गधा ही रहेगा।’ कहकर, कसकर मेरी गर्दन पकड़ी। दो-तीन बार झटके से इधर-उधर हिलाई और बोले - ‘इंगलिश लिटरेचर ले लेने का मतलब अंग्रेज हो जाना नहीं होता। यू आर स्टडिंग इंगलिश लिटरेचर ओनली। डोण्ट ट्राय टू बी एन इंगलिश मेन। इट इज ग्रेट टू बी एन इण्डियन। बी ए गुड इण्डियन एण्ड रीमेन लाइक देट।’ मेरी गरदन लोहे के पंजे में जकड़ी हुई थी। साँसें घुट रही थीं। बोल पाने का तो सवाल ही नहीं था।

मेरी गरदन को इसी तरह जकड़े हुए आप्टे साहब कक्षा के बाहर खड़े थे। अन्दर बैठे सारे तेरह साथी/साथिनें यह अद्भुत और अनूठा ‘सीन’ देख रहे थे। आप्टे साहब गुस्से में बिलकुल नहीं थे लेकिन मेरी गर्दन पर उनकी पकड़ रंच मात्र भी ढीली नहीं हो रही थी। इसी दशा और मुद्रा में आप्टे साहब ने उस दिन अपना पूरा ‘पीरीयड’ एक अकेले विद्यार्थी को पढ़ाया।

आप्टे साहब ने कहा कि हाथ मिलाना पाश्चात्य शिष्टाचार की परम्परा है। भारतीय परम्परा नमस्कार करने की है। अर्थ तो दोनों का एक ही है - अभिवादन कर आदर जताना। किन्तु दोनों की प्रक्रिया एकदम अलग-अलग है। लगभग विपरीत। पाश्चात्य परम्परा में वरिष्ठ को शाब्दिक अभिवादन (यथा, गुड मार्निंग/गुड नून/गुड इवीनिंग सर!) किया जाता है। जवाब में वरिष्ठ शाब्दिक अभिवादन तो करता ही है, कनिष्ठ के प्रति प्रेम और सम्मान भाव प्रकट करते हुए अपना हाथ बढ़ाता है। तब ही कनिष्ठ उससे हाथ मिलाता है। पाश्चात्य संस्कृति में कनिष्ठ कभी भी पहले हाथ नहीं बढ़ाता। भारतीय संस्कृति में हाथ नहीं मिलाया जाता। हमारे यहाँ कनिष्ठ व्यक्ति, विनयपूर्वक, दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर अभिवादन करता है। जवाब में वरिष्ठ व्यक्ति प्रेमपूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक आशीर्वचन से उसे समृद्व करता है। विस्तार से समझा कर आप्टे साहब ने मेरी गर्दन छोड़ी और पूछा - ‘डिड यू अण्डरस्टेण्ड?’ घिघियाते हुए मेरे बोल फूटे - ‘यस सर!’ आप्टे साहब बोले - ‘नो। इट इज नाट सफिशियण्ट। लेट अस हेव ए प्रेक्टिकल।’ कह कर खुद दो कदम पीछे हटे और बोले - ‘आई एम कमिंग टू क्लास। विश मी ए गुड मार्निंग।’ मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। मेरी दशा देख कर बोले - ‘अरे! गधे! विश मी ए गुड मार्निंग।’ मन्त्रबिद्ध दशा में मैंने खुद को यन्त्रवत बोलते सुना - ‘गुड मार्निंग सर!’ खुश होकर आप्टे साहब ने जवाब दिया - ‘व्हेरी गुड मार्निंग माय ब्वाय। हाऊ डू यू डू?’ और अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। मैंने उसी दशा में अपना लुंज-पुंज हाथ उनके हाथ में दे दिया। वे खुश हो गए। मेरा हाथ छोड़ कर बोले - ‘अब भारतीय संस्कृति का प्रेक्टिकल हो जाए।’ कह कर फिर दो कदम पीछे हटे। इस बार मैंने न तो प्रतीक्षा की न ही देर। बोला - ‘नमस्कार सर!’ पूरी ऊँचाई तक अपना दाहिना हाथ आकाश में उठाते हुए आप्टे साहब गद्गद् भाव से बोले - ‘आयुष्मान् भव। यशस्वी भव।’ कहते-कहते मेरा माथा सहलाया और कक्षा में देखते हुए बोले - ‘तुम सबने सुना?’ सबने मुण्डियाँ हिला कर हामी भरी। देखकर आप्टे साहब बोले - ‘आज की क्लास हो गई। सी यू टुमारो।’

उसके बाद क्या हुआ, क्या नहीं, यह बताने का कोई मतलब नहीं। वह सब आज याद आ गया - प्रधान मन्त्रीजी और परिणीति की यह तस्वीर देखकर। पता नहीं, इन दोनों को कभी कोई आप्टे साहब मिले या नहीं।
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7 comments:

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  2. सच मे निःशब्द कर देने वाला सबक,कहने और समझने की यहां यह जरूरत नही है कि शिष्टाचार और आप्टे साहब जैसे गुरु की जरूरत किसको है क्योंकि गुरु का अक्ष तो शिष्य में दिखता ही है।। आपके सबक ने समृद्ध किया,धन्यवाद दादा।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (28-01-2019) को "सिलसिला नहीं होता" (चर्चा अंक-3230) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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