कुमार प्रशान्त
(गांधी जयन्ती 2022 के अवसर पर, गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री प्रशान्त कुमार का, बीबीसी हिन्दी के लिए, 01 अक्टूबर 2022 को प्रकाशित आलेख।)
गांधी सारी दुनिया में हैं। कम-से-कम मूर्तियों के रूप में तो जरूर। दुनिया में तकरीबन 70 देश ऐसे हैं जिनमें गांधीजी की प्रतिमाऍं लगी है।
भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन में गांधी 1917 में प्रवेश करते हैं और फिर अनवरत कोई 31 सालों तक, अथक संघर्ष की वह जीवन-गाथा लिखते हैं। लेकिन एक हिसाब और भी है जो हमें लगाना चाहिए, कितने देशों में गांधी-प्रतिमा को खण्डित करने की वारदात हुई है? संख्या बड़ी है। गांधी के चम्पारण में, मोतिहारी के चरखा पार्क में खड़ी गांधी की मूर्ति पिछले दिनों ही खण्डित की गई है। ऐसे चम्पारण दुनिया भर में हैं। अमेरिका में ‘ब्लैकलाइफ मैटर्स’ के दौरान गांधी प्रतिमा को नुकसान पहुँचाया गया था। ऐसी घटनाओं से नाराज या व्यथित होने की जरूरत नहीं है। फिक्र करनी है तो हम सबको अपनी फिक्र करनी चाहिए।
‘चुनौती नहीं, तो गांधी नहीं’
गांधी की प्रतिमाओं के खिलाफ एक लहर तब भी आई थी जब 60-70 के दशक में नक्सली उन्माद जोरों पर था। गांधी की मूर्तियों पर हमले हो रहे थे। वो तोड़ी जा रही थीं। विकृत की जा रही थीं। अपशब्द आदि लिखकर उन्हें मलिन करने की कोशिश की जा रही थी। तब यहाँ-वहाँ चेयरमैन माओ के समर्थन में नारे भी लिखे और लगाए जा रहे थे। मूर्तियों से लड़ने के इसी उन्मादी दौर में, बिहार के जमशेदपुर में गांधी की मूर्ति भी तोड़ी गई थी।
जयप्रकाश नारायण ने एक बार अपनी गांधी बिरादरी को सम्बोधित करते हुए लिखा था, ‘गांधी से इन लोगों को इतना खतरा महसूस होता है। वे इनकी मूर्तियाँ तोड़ने में लगे हैं, इसे मैं आशा की नजरों से देखता हूँ।’ जेपी ने कहा था, ‘यह हम गांधीजनों को सीधी चुनौती है, जो अपनी-अपनी सुरक्षित दुनिया बनाकर जीने लगे हैं। चुनौती नहीं, तो गांधी नहीं।’ ऐसा भाव तब जयप्रकाश ने जगाया था जो उस लहर में बदला, जिसे इतिहास में जयप्रकाश आन्दोलन या ‘सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन’ कहा जाता है।
आज गांधी के खिलाफ एक दूसरा ध्रुव उभरा है, जो हिन्दुत्व के नाम से काम करता है। नक्सली आज भी हैं। नक्सली हमलों और हत्याओं की खबरें भी यहाँ-वहाँ से आती रहती हैं।
दुनिया भर में बढ़ रही है संकीर्णता
लगता है कि सारी दुनिया में यह दौर संकीर्णता को सिर पर उठाए घूम रहा है। यह संकीर्णता सत्ता की ताकत पाकर ज्यादा हमलावर और ध्वंसकारी होती जा रही है। इसी ने तो गांधी को गोली भी मारी थी। गोली से गांधी मरे नहीं, बहुत व्यापक हो गए। संकीर्ण साम्प्रदायिकता ने ऐसे परिणाम की आशा नहीं की थी। अब वे उन सारी स्मृतियों को पोंछ डालना चाहते हैं जिससे उनकी क्षुद्रता, विफलता सामने आती है। गांधी के खिलाफ तब वामपंथियों ने चेयरमैन माओ का प्रतीक खड़ा किया था, हिन्दुत्व वाले नाथूराम गोडसे का प्रतीक खड़ा करने में जुटे हैं।
सब अपने-अपने प्रतीक खड़े कर रहे हैं लेकिन जो खड़ा नहीं हो पा रहा है और जिसे खड़ा करने में किसी की दिलचस्पी भी नहीं है, वह है लोकतन्त्र का आम नागरिक। गांधी इसी की हैसियत बनाने और बढ़ाने में जीवन भर लगे रहे।
‘हिंसा से होता है मनुष्यता का पतन’
गांधी होते तो आज 153 साल के होते। इतने साल आदमी कहाँ जीता है? लेकिन गांधी जी रहे हैं तभी तो हम उनसे चर्चा और बहस कर रहे हैं। उनकी मूर्तियों पर हमला करके अपना क्रोध या अपनी असहमति व्यक्त कर रहे हैं।
गांधी न कभी सत्ताधीश रहे, न व्यापार-धन्धे की दुनिया से और न उसके शोषण-अन्याय से उनका कोई नाता रहा। न उन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने की वकालत की, न गुलामों का व्यापार किया, न धर्म-रंग-जाति-लिंग भेद जैसी किसी सोच का समर्थन किया। वे अपनी कथनी और करनी में हमेशा इन सबका निषेध ही करते रहे लेकिन रास्ता हिंसक नहीं था।
हिंसा का मतलब ही है कि आप मनुष्य से बड़ी किसी शक्ति को, मनुष्य का दमन करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, फिर चाहे वह शक्ति हथियार की हो कि धन-दौलत या सत्ता की या संख्या या उन्माद की।
गांधी ऐसे किसी हथियार का इस्तेमाल मनुष्य के खिलाफ करने को तैयार नहीं होते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि हिंसा से मनुष्य और मनुष्यता का पतन होता है। जिसके खिलाफ हम होते हैं, वह पहले से ज्यादा क्रूर और घातक हो जाता है। हिंसा हमारे निष्फल क्रोध की निशानी बन कर रह जाती है इसलिए ही वे कहते हैं कि हिंसा बाँझ होती है।
सम्भावना का नाम है गांधी
अहिंसक रास्ते से समाज अपनी कमियों-बुराइयों से कैसे लड़ सकता है और कैसे अपनी सत्ता बना सकता है, इसका कोई इतिहास नहीं है। जो और जितना है, वह गांधी का ही बनाया है।
तो, गांधी एक सम्भावना का नाम है। कुछ लोग हैं जो गांधी के बाद भी इस सम्भावना को जाँचने और सिद्ध करने में लगे हैं। इसलिए ही तो हम गांधी-विनोबा-जयप्रकाश का त्रिकोण बनाते हैं क्योंकि अहिंसक शोध की दिशा में इतिहास के पास कोई चौथा नाम है नहीं।
हम कह सकते हैं कि इन चारों की अपनी मर्यादाएँ और कमजोरियाँ भी हैं जैसी हर मानव की होती है। फिर ऐसे गांधी का और उनकी दिशा में की जा रही कोशिशों का ऐसा विरोध क्यों है?
गांधी के प्रति धुर वामपंथियों और धुर दक्षिणपंथियों का एक-सा द्वेष क्यों है? यह द्वेष आज का नहीं, जन्मजात है। गांधी को अपने जीवन के प्रारम्भ से तीन गोलियों से छलनी होने तक, इनका घात-प्रतिघात झेलना पड़ा। ऐसा क्यों? इसका कारण समझना किसी जटिल वैज्ञानिक समीकरण को समझने जैसा नहीं है।
गांधी इस अर्थ में बेहद खतरनाक हैं कि वे किसी भी, कैसी भी गैर-बराबरी, किसी भी स्तर पर भेद-भाव, किसी भी तर्क से शोषण-दमन को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। इस हद तक कि वे इनमें से किसी की मुखालफत करते हुए जान देने को तैयार रहते हैं।
दूसरी तरफ यही गांधी हैं कि जो किसी भी तरह बदला लेने या प्रतिहिंसा को कबूल करने को तैयार नहीं हैं। मानव-जाति ने प्रतिद्वन्द्वी से निबटने के जो दो रास्ते जाने, माने और लगातार अपनाए भी हैं, वे इन्हीं बलों पर आधारित हैं- हिंसा-प्रतिहिंसा-बदला।
हमारी सभ्यताओं का सारा इतिहास इन्हीं तीन ताकतों का दस्तावेज है। कोई तीसरी ताकत भी हो सकती है जो इस दुष्चक्र से मनुष्यता को मुक्ति दिला सकती है, इसका दावा और उस दिशा में लगातार साहसी प्रयास हमें केवल गांधी में ही मिलता है।
गांधी से वामपंथियों का विरोध या द्वेष इधर कुछ कम हुआ है। दलित पार्टियों का गांधी के खिलाफ विषवमन कुछ धीमा पड़ा है तो सोच-समझ रखने वाले दलितों के बीच से सहानुभूति और समन्वय की कुछ आवाजें भी उठने लगी हैं लेकिन गांधी की मूर्तियों को तोड़ने पर इनकी तरफ से कोई खास प्रतिवाद आज भी नहीं होता है।
प्रतिवाद में जो आवाजें उठती हैं उनमें हाय-तौबा ज्यादा होती है। यह भी सच है कि ऐसी घटनाओं के पीछे दिशाहीन सामाजिक उपद्रवी, शराबी-अपराधी किस्म के लोग भी होते हैं लेकिन यह भी सच है कि यह गांधी से विरोध-भाव रखने वाली राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों का कारनामा भी है।
‘गांधी पूजा एक खतरनाक काम’
मूर्तियों का प्रतीक संसार सारी दुनिया में अत्यन्त बेजान, अर्थहीन और नाहक उकसाने वाला हो गया है। तो गांधी पर हम गांधी वाले रहम खाएँ और मन-मन्दिर में भले उन्हें बसाएँ, उनकी मूर्तियाँ न बनाएँ। हम दृश्य-जगत में उनके मूल्यों की स्थापना का ठोस काम करें।
गांधी सामयिक हैं, यह बात नारों-गीतों-मूर्तियों-समारोहों-उत्सवों से नहीं, समस्याओं के निराकरण से साबित करनी होगी।
जो गांधी को चाहते और मानते हैं उनके लिए गांधी एक ही रास्ता बताकर गए हैं - अपने भरसक ईमानदारी और तत्परता से गांधी मूल्यों की सिद्धि का काम करें। इससे उनकी जो प्रतिमा बनेगी, वह तोड़े से भी नहीं टूटेगी।
साथ ही, जयप्रकाश की चेतावनी याद रखें, ‘गांधी की पूजा एक ऐसा खतरनाक काम है जिसमें विफलता ही मिलने वाली है।’
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(लेख की लिंक कटनीवाले श्री नन्दलाल सिंहजी से वाट्स एप पर प्राप्त और चित्र के साथ दिया सन्दीप अध्वर्य रचित चित्र श्री ओम थानवी की फेस बुक वाल से साभार।)
सटीक
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Deleteहम दृश्य-जगत में उनके मूल्यों की स्थापना का ठोस काम करें।
ReplyDeleteगांधी सामयिक हैं, यह बात नारों-गीतों-मूर्तियों-समारोहों-उत्सवों से नहीं, समस्याओं के निराकरण से साबित करनी होगी।
जो गांधी को चाहते और मानते हैं उनके लिए गांधी एक ही रास्ता बताकर गए हैं - अपने भरसक ईमानदारी और तत्परता से गांधी मूल्यों की सिद्धि का काम करें। इससे उनकी जो प्रतिमा बनेगी, वह तोड़े से भी नहीं टूटेगी।
साथ ही, जयप्रकाश की चेतावनी याद रखें, ‘गांधी की पूजा एक ऐसा खतरनाक काम है जिसमें विफलता ही मिलने वाली है।’
आपने बिलकुल ठीक कहा। हम चरम प्रतीकीकरण के दौर से गुजर रहे हैं। 'गॉंधी का मानने' के बजाय 'गाँधी को मानना' बहुत आसान है। जब हम गॉंधी की नहीं सुन रहे हैं तो भला जयप्रकाश की क्या सुनेंगे।
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