हम सब, निहालसिंह


इन दिनों निहालसिंह चर्चा में हैं। शायद ही कोई अखबार और समाचार चेनल बचा हो जिसने निहालसिंह की चर्चा न की हो। किसी ने कम, किसी ने अधिक, किन्तु चर्चा की सबने। एक समाचार चैनल ने निहालसिंह पर आधे घण्टे का विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किया और थोड़े-थोड़े अन्तराल से, लगभग पूरे दिन प्रसारित किया।

लोग निहालसिंह के घर जा रहे हैं किन्तु उनसे मिलने नहीं। निहालसिंह में किसी की रुचि नहीं है। जो भी जा रहा है, उनकी कार देखने जा रहा है। एक प्रसिद्ध कम्पनी की इस कार का मूल्य बीस लाख रुपये अवश्य है किन्तु ऐसी कार देश में कई लोगों के पास है। इसलिए, मूल्य की दृष्टि से निहालसिंह की कार अनूठी और इकलौती नहीं है। अनूठा है इसका पंजीयन नम्बर - 0001। यह नम्बर प्राप्त करने के लिए निहालसिंह ने पूरे दस लाख रुपये खर्च किए। याने कार के मूल्य की आधी रकम। अपनी कार के लिए यह नम्बर प्राप्त करने क लिए निहालसिंह को नीलामी में उतरकर बोली लगानी पड़ी। खबर है कि इस नम्बर के लिए सात लाख रुपये तक की बोली तक तो कई लोग आए किन्तु उसके बाद दो ही रह गए और अन्ततः निहालसिंह के दस लाख के आँकड़े के सामने कोई नहीं टिका और निहालसिंह की कार एक नम्बरी हो गई। अब निहालसिंह जब भी अपने परिवार के साथ घर से बाहर कार में निकलते हैं तो कार चलाते समय सड़क पर कम और आसपास, उनकी कार को देखनेवालों को ज्यादा देखते हैं, फिल्मी गीत की पंक्ति को साकार करते हुए - हम उधर देखनेवालों की नजर देख रहे हैं।

मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। पहले हुआ करता था। अब बातें कुछ-कुछ समझ आने लगी हैं। अपने से बेहतर लोगों से मिलने-जुलने का यही लाभ हुआ मुझे। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि जीने का आनन्द कम हो जाता है। ऐसी बातों का जितना आनन्द दूसरे लेते हैं, उतना आप नहीं ले पाते। जीवन का आनन्द लेने के लिए न्यूनतम अज्ञानी और मूर्ख होना आवश्यक शर्त होती है। आप जैसे ही समझदार हुए कि गए काम से। सब लोग जिस बात पर ठहाके लगा रहे होते हैं तब आप मूर्खों की तरह चुपचाप बैठे रहते हैं। अज्ञान के अपने सुख होते हैं। अबोध बच्चों को हमारे साथ तब तक ही मजा आता है जब तक कि हम जानबूझकर अज्ञानी और नासमझ बने रहते हैं। गोया, अपने आनन्द के लिए ही नहीं, दूसरो के आनन्द के लिए भी अज्ञानी होना बड़ा सहायक तत्व होता है।

मानव मनोविज्ञान के अनुसार हम सब ‘पहचान की भूख’ के रोगी हैं। हममें से कोई भी भीड़ का हिस्सा बन कर नहीं जीना चाहता। चाहता है कि भीड़ में रहकर भी वह भीड़ से अलग दिखाई दे। यह 'सहज प्रवृत्ति' चैबीसों घण्टे हमें नियन्त्रित किए रहती है। तब भी, जब हम सोए रहते हैं। इसी के अधीन हम सब कोई न कोई सनक या पागलपन पाले रहते हैं जिसका भान हमें तो नहीं होता किन्तु हमारे आसपासवाले इसे खूब अच्छी तरह जानते हैं और इसके बहाने कभी हमारे मजे लेते रहते हैं तो कभी-कभी कोई जिज्ञासा और कौतूहल की विषय वस्तु बना रहता है।

हमारा एक कंजूस मित्र था। उससे चाय पी लेना चुनौतीभरा काम होता था। हम उसे घेर कर ले जाते, वह चाय का आर्डर देता। चाय पीकर हम उसे, भुगतान के लिए, पीछे छोड़कर निकलने लगते तब वह काउण्टर से आवाज लगा कर हमें बुलाता। उसके पास सदैव सौ रुपयों का नोट होता जिसकी शेष रकम का छुट्टा दुकानदार के पास नहीं होता। उसे गालियाँ देते हुए हममें से कोई भुगतान करता। किन्तु चौबीस घण्टे से पहले ही वह हमें भुगतान कर देता। हम पूछते - ‘होटल में क्यों नहीं किया?’ वह कहता - ‘मुझसे चाय पीने के लिए तुम सब जो कुछ करते हो, मेरे भुगतान न करने पर कुढ़ते हो, गालियाँ देते हो, इस सबमें मुझे मजा आता है।’ हम कुछ नहीं कहते। अब समझ आ रहा है कि हम सबके सब उल्लू के पट्ठे थे। हम समझते थे कि हम सब उसके मजे ले रहे हैं जबकि वास्तव में वह हमारे मजे लेता था। तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि हममें से कौन सनकी था - वह अकेला या हम सब?

सबसे अलग दिखने के लिए हम सब अपनी-अपनी क्षमता, समझ और सुविधानुसार उपक्रम करते हैं। अपने लिए पेण्ट-शर्ट का कपड़ा खरीदते समय और उनकी सिलवाई कराते समय भी यह सहज प्रवृत्ति हमें नियन्त्रित करती रहती है। हममे से प्रत्येक चाहता है कि जो कपड़ा वह पसन्द कर रहा है, उस कपड़ेवाली पेण्ट-शर्ट किसी और के पास न हो और यदि हो तो सिलाई के मामले में तो वह सबसे अलग हो ही।

परिजन की हैसियत पा चुका हमारा एक परिचित था - राम प्रकाश सिंह। बहुत ही सरल, सहज, निश्छल, निष्कलुष। हम सबके आनन्द के लिए खुद को परिहास की विषय वस्तु तक बना लेता। खूब चुलबुला और मीठा बोलनेवाला। किन्तु किसी समारोह, आयोजन में जाने के लिए वह जैसे ही कपड़े बदलता, बोलना बन्द कर देता। उसका तर्क होता था - ‘मेरे कपड़े तब तक ही बोलेंगे, तब तक ही मेरा साथ देंगे, जब तक मैं चुप रहूँगा और मैं कपड़ों की कीमत कम नहीं करना चाहता।’

दादा के एक बम्बइया मित्र थे - बद्रीलालजी जोशी। अब स्वर्गीय हैं। वे फिल्मों से जुड़े हुए थे। उनकी पुत्री रतलाम में ही है - स्नेहलता तिवारी या स्वर्णलता तिवारी। वे पार्षद भी रह चुकी हैं। जोशीजी की अपनी पहचान थी। वे पायजामा और बुशर्ट पहनते थे। न तो कभी पेण्ट-बुशर्ट पहना और न ही कभी पायजामा-कुर्ता। सदैव ही पायजामा-बुशर्ट में मिलते। पूरी फिल्मी दुनिया में उन्हें ‘पायजामेवाला जोशी’ के नाम से ही पुकारा, पहचाना जाता।

रतलाम में ही एक डॉक्टर साहब हैं जो ऊपर से नीचे तक सफेद में ही रहते हैं- बालों को छोड़कर। जूते, मौजे, कमरपट्टा, पेण्ट, शर्ट - सब कुछ सफेद। उनकी कार का रंग भी सफेद। उनसे मेरा परिचय नहीं, उनका नाम तक नहीं जानता किन्तु फिर भी मैं उन्हें जानता हूँ। एक हैं मनु भाई चह्वाण। एलआईसी के भूतपूर्व कर्मचारी। नाखून से कागज पर कलाकृतियाँ और शब्द उकेरने में निष्णात्। व्यावहारिकता निभाने के मामले में अद्भुत। किन्तु कभी सीधे मुँह बात नहीं करते। आड़ी-तिरछी बात करने का मेरा एकाधिकार उन्हीं ने नष्ट किया। उनके सामने मैं सदैव ही परास्त-मुद्रा में रहता हूँ। मैं उन्हें ‘मनु भाई एबला’ कहता हूँ। अभिवादन के उत्तर में वे पूछते हैं - ‘कहो भई एबला नम्बर दो?’ हम दोनों जब मिलते हैं तो थोड़ी देर के लिए ही सही, आसपास के लोग हमें देखते रहते हैं। मुझे लगता है, यह सब देखकर हम दोनों का अहम् तुष्ट होता होगा - हम दोनों को सब लोग देख रहे हैं।

ऐसे पचासों लोग, पचासों बातें हमारे आसपास प्रतिदिन ही उपथित रहती हैं किन्तु हम अपने आप में ही इतने खोए रहते हैं कि उनका संज्ञान (याने कि उन सबका आनन्द) लेने की सूझ ही नहीं पड़ती। हम सब अपने आप को सबसे अलग दिखाने की जुगत में ही भिड़े रहते हैं।

‘तीन आस्था घोष’ शीर्षकवाली दादा की एक कविता की पंक्ति है - ‘मैं असाधारण रूप से साधारण हूँ।’ मुझे लगता है कि ऐसा ‘असाधारण’ बनने की कोशिश में हम प्रायः ही ‘असामान्य’ बन जाते हैं। मित्र मण्डली में मैं परिहासपूर्व कहता रहता हूँ - ‘हम जो नहीं हैं, खुद को वही साबित करने के चक्‍कर में हम वह भी नहीं रह पाते जो हम हैं।’ किन्तु इस सन्दर्भ में मुझे जलजजी की बात बराबर याद आती रहती है। हम सब ‘अहम्’ के मारे हुए हैं। जलजजी कहते हैं - ‘कई लोगों को इस बात का अहम् होता है कि उन्हें कोई अहम् नहीं है।’

गोया, हम सब निहालसिंह ही हैं। जब भी मौका मिलता है, निहालसिंह बन जाते हैं - पैसा हुआ तो पैसे से, अकल हुई तो अकल से, प्रतिभा हुई तो प्रतिभा से, शारीरिक शक्ति हुई तो उससे। यदि नहीं बन पाते हैं तो ‘निहालसिंहपन’ तो बता ही देते हैं।
बस, मौका मिलना चाहिए।
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2 comments:

  1. निहालसिंह कहाँ नहीं हैं। निहालसिंह से मुक्ति पाना आसान काम नहीं। जब उस से मुक्ति पा जाएँ, समझें आप मुक्त हो गए।

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